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________________ ३४० धर्मामृत ( सागार) स णमो अरहताणमित्युच्चारणतत्परः । गोपः सुदर्शनीभूय सुभगाह्वः शिवं गतः ॥७॥ सुदर्शनीभूय-[ बृषभदासश्रेष्ठिपुत्रसुदर्शनाख्यः सुरूपः सुसम्यक्त्वश्च भूत्वा ] ॥७८।। अथ ज्ञानोपयोगमाहात्म्यं त्रिभिराह स्वाध्यायादि यथाशक्ति भक्तिपीतमनाश्चरन् । तात्कालिकाद्भतफलादुदर्के तर्कमस्यति ॥७९॥ उदर्के-उत्तरफले । तर्क-विकल्पं संशयरूपं विमर्शमित्यर्थः ॥७९॥ शले प्रोतो महामन्त्रं धनदत्तापितं स्मरन् । दृढशूर्पो मृतोऽभ्येत्य सौधर्मात्तमुपाकरोत् ।।८०॥ महामन्त्रं-पञ्चनमस्कारम् । तदनुचिन्तनस्योत्कृष्टस्वाध्यायत्वात् । णमो अरहताणं' इस अर्हन्त नमस्कारके उच्चारणमें लीन हुआ सुभग नामक वह आगमप्रसिद्ध ग्वाला सुदर्शन श्रेष्ठी होकर तथा सुरूप और सम्यक्त्वसे सम्पन्न होकर परम मुक्तिको प्राप्त हुआ ॥७॥ . विशेषार्थ-सुदर्शन सेठकी कथा आगममें प्रसिद्ध है। पूर्वजन्ममें वह एक ग्वाला था और एक श्रेष्ठीकी गायें चराता था। श्रेष्ठी णमोकार मन्त्रका जप किया करता था। सुनतेसुनते उसे भी उसका पहला पद याद हो गया। एक दिन वह जंगलमें गायोंको चरता छोड़कर सो गया । जब जागा तो गायें एक नालेको पार करके दूर चली गयी थीं। उन्हें पकड़नेके लिए जैसे ही वह नालेमें कूदा एक लकड़ी उसके पेट में घुस गयी। उसने 'णमो अरहताणं' उच्चारण करते हुए प्राण त्यागे और मरकर सुदर्शन सेठ हुआ। वह इतना सुरूप था कि उस नगरके राजाकी रानी उसके रूपपर मुग्ध हो गयी। किन्तु सुदर्शन तो अणुव्रतधारी श्रावक था। प्रत्येक अष्टमी, चतुर्दशीको उपवासपूर्वक रात्रिके समय श्मशानमें जाकर ध्यान लगाता था । जब वह किसी तरह रानीकी बातोंमें न आ सका तो एक दिन रानीने कुट्टनीके द्वारा उसे श्मशानसे उठवा मँगाया। किन्तु फिर भी सुदर्शन विचलित नहीं हुआ। तब रानीने उसपर शीलभंगका आरोप लगाया । राजाने सूलीपर चढ़ानेकी सजा दी। किन्तु वनदेवताके साहाय्यसे प्राण बचे । तब जिनदीक्षा लेकर पटनासे मुक्ति प्राप्त की ॥७८॥ तीन श्लोकोंसे ज्ञानोपयोगका माहात्म्य कहते हैं मनको भक्तिसे अनुरंजित करके अपनी शक्तिके अनुसार स्वाध्याय, वन्दना, प्रतिक्रमण आदि षट्कर्म करनेवाला स्वाध्याय करते समय होनेवाले अद्भुत फलसे उत्तरकालीन फलके विषयमें संशयको छोड़ देता है। अर्थात् स्वाध्याय करनेके समयमें उसे ऐसे ज्ञानकी प्राप्ति होती है जिससे वह असम्भव अदृष्टका भी निश्चय करने में समर्थ होता है । तब उसे उत्तर फलके सम्बन्धमें इस प्रकारका सन्देह नहीं होता कि स्वाध्यायका आगममें जो । अद्भुत फल कहा है वह मुझे प्राप्त होगा या नहीं? ॥७९|| सूलीपर चढ़ाया गया और धनदत्त श्रेष्ठीके द्वारा दिये गये पंचनमस्कार मन्त्रका चिन्तन करता हुआ दृढ़शूर्प नामक चोर मरा और सौधर्म स्वर्गसे आकर उसने धनदत्त सेठका उपकार किया ॥८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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