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________________ धर्मामृत ( सागार ) शिक्षयेच्चेति तं सेयमन्त्या सल्लेखनाऽऽयं ते। अतीचारपिशाचेभ्यो रक्षनामतिदुर्लभाम् ॥५८॥ अन्त्या-मारणान्तिकी । अतिदुर्लभा-आसंसारमप्राप्तपूर्वत्वात् ॥५८॥ प्रतिपत्तौ सजन्नस्यां मा शंस स्थास्नु जीवितम् । भ्रान्त्या रम्यं बहिर्वस्तु हास्यः को नाऽऽयुराशिषा ॥५९॥ प्रतिपत्ती-आचार्यादिभिः क्रियमाणे परिचर्यादिविधौ। [महद्धि कैः पुरुषैश्च गौरवादरादिके । आयराशिषा-जीवितं मे भूयादित्याशंसनेन । स एष जीविताशंसो नामातिचारः। पुनरनद्योपपत्तिविशेषेण त्याज्यतयोपदिष्टः । एवमुत्तरेऽपि ॥५९॥ परीषहभयादाशु मरणे मा मतिं वृथाः । दुःखं सोढा निहन्त्यंहो ब्रह्म हन्ति मुमूर्षुकः ॥६०॥ सोढा-साधुत्वेनासंक्लेश [ परिणामलक्षणेन सहमानः । निहन्ति-निरुद्धास्रवं क्षपयति विपाकान्त ]१२ त्वात्कर्मणाम् । मुमूर्षक:-कुत्सितविधिना मर्तुमिच्छन् ॥६॥ सहपासुक्रीडितेन स्वं सख्या माऽनुरञ्जय । ईदृशबहुशो भुक्तर्मोहदुर्ललितैरलम् ॥६१॥ मा समन्वाहर प्रीतिविशेषे कुत्रचित्स्मृतिम् । वासितोऽक्षसुखैरेव ब्रम्भ्रमोति भवे भवी ॥६२।। आचार्य क्षपकको इस प्रकार शिक्षा देवें-हे आर्य ! तुम्हारी यह वह आगम प्रसिद्ध अन्तिम सल्लेखना है । अत्यन्त दुर्लभ इस सल्लेखनाको अतिचाररूपी पिशाचोंसे बचाओ । ५८॥ क्रमसे पाँच अतिचारोंको दूर करने की शिक्षा देते हैं इस आचार्य आदिके द्वारा की जा रही परिचर्या आदि विधिमें तथा बड़े सम्पन्न पुरुषोंके द्वारा किये जा रहे गौरवदान आदि आदर-सत्कार में आसक्त होकर अधिक काल तक जीने की इच्छा मत करो। क्योंकि बाह्य वस्तु भ्रमसे अपनेको प्रिय प्रतीत होती है। आयुका आशीर्वाद चाहनेसे अर्थात् मैं जीवित रहूँ इस इच्छासे कौन मनुष्य लौकिक और विचारक जनोंकी हँसीका पात्र नहीं होता ॥५९।। विशेषार्थ-यह जीविताशंसा नामक प्रथम अतीचार यहाँ उपपत्ति पूर्वक छुड़ानेके लिए पुनः कहा गया है। इसी प्रकार आगे भी प्रत्येक अतीचार कहा गया है ॥५९।। दुःसह भूख-प्यास आदिकी वेदनाके भयसे शीघ्र मरनेकी इच्छा मत करो। क्योंकि दुःखको विना संक्लेश भावसे सहन करनेवाला पूर्व उपार्जित पापकर्मका नाश करता है। किन्तु जो कुत्सित विधिसे मरना चाहता है वह आत्माका हनन करता है क्योंकि आत्मघात से संसार दीर्घ होता है ॥६॥ बाल्य अवस्था में जिसके साथ धूलमें खेले थे उस बचपनके मित्रके साथ अपनेको स्नेहबद्ध मत करो। पूर्व जन्मोंमें बहुत बार भोगे गये मोहनीय कर्मके उदयसे उत्पन्न इस प्रकारके खोटे परिणामोंसे तुम्हें क्या प्रयोजन है। तुम तो परलोक जानेके लिए तैयार हो ॥६॥ किसी इन्द्रियके द्वारा पहले अनुभव किये गये किसी प्रीतिविशेषमें मनको मत लगाओ १. प्रोतिविशिष्ट मु.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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