SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 368
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तदश अध्याय ( अष्टम अध्याय ) ३३३ कि चाङ्गस्योपकार्यन्नं न चैतत्तत्प्रतीच्छति । तच्छिन्धि तृष्णां भिन्धि स्वं देहाद्रुन्धि दुराश्रवम् ॥५५॥ तृष्णां-अन्ने वाञ्छानुबन्धम् ।।५५॥ इत्थं पथ्यप्रथासावितृष्णीकृत्य तं क्रमात् । त्याजयित्वाशनं सूरिः स्निग्धपानं विवर्धयेत् ॥५६॥ पथ्यप्रथासारैः-हितप्रकाशनधारासंपातैः । स्निग्धपानं-दुग्धादिः । विवर्धयेत्-परिपूर्ण ६ दद्यात् ॥५६॥ पानं षोढा घनं लेपि ससिक्थं सविपर्ययम् । प्रयोज्य हापयित्वा तत् खरपानं च पूरयेत् ॥५७॥ घनं-बहलं दध्यादि । सविपर्ययमिति वचनादच्छं तु तित्रिकादिफलरससौवीरकोष्णजलादि । यदाह 'आम्लेन कफः प्रलयं गच्छति पित्तं च शान्तिमुपयाति । वायो रक्षाहेतोरत्र विदयो (विधेयो) महायत्नः॥' [ लेपि-यद्धस्ततलं लिम्पति तद्विपरीतमलेपि । ससिक्थं-सिक्यसहितं पयादि । तद्विपरीतमसिक्थं मण्डादि । यदाह .... ... ... ... ... ... ... .... ... ... ... ... ...। ... ... ... ... ... ... ... ... ... वागूर्वी रत्नद्रवा ॥ [ ] खरपानं-प्रथमं शुद्धकाञ्जिकादिरूपं पश्चाच्च शुद्धपानीयरूपम् । पूरयेत्-विवर्धयेत् ॥५॥ इत्थं [ च निर्यापकाचार्यः क्षपकं शिक्षयेदिति षड्भिः श्लोकराह - ] तथा यह भोज्य पदार्थ शरीरका भी उपकारी नहीं है और न यह शरीर ही उसे उपकारक रूपसे ग्रहण करता है। इसलिए भोजन-विषयक तृष्णाको नष्ट करो, अपनेको शरीरसे भेदरूपसे भावन करो तथा पापकर्मके आस्रवके कारणको रोको। अर्थात् शरीरमें आत्मबुद्धि होनेसे ही पाप कर्मका आस्रव होता है। वही उसका मूल कारण है। अतः उसे दूर करो ॥५५॥ निर्यापकाचार्य इस प्रकार हितोपदेशरूपी जलवृष्टिके द्वारा उस क्षपकको भोजनकी ओरसे तृष्णारहित करके क्रमसे कवलाहारका त्याग करा दें और दूध आदि सचिक्कण पेय पदार्थको पूरी तरहसे देवें ॥५६।। पेय द्रव्यके छह प्रकार हैं -१ घन अर्थात् गाढ़ा दही आदि, २ उसका विपरीत इमली आदि फलोंका रस, ३ लेपि अर्थात् जो हथेलीको लिप्त कर दे, ४ उससे विपरीत अर्थात् जो हाथसे चिपके नहीं, ५ ससिक्थ अर्थात् फुटकी सहित दूध आदि, ६ उससे विपरीत असिक्थ माण्ड आदि। निर्यापकाचार्य ये छह प्रकारके पेय द्रव्य परिचारकोंके द्वारा दिलाकर फिर क्षपकके द्वारा छुड़वा दे। उसके बाद पहले शुद्ध कांजी आदि रूप और अन्त में शुद्ध पानीरूप खरपान देवे ॥५॥ निर्यापकाचार्य क्षपकको इस प्रकारसे शिक्षा देवें, यह छह श्लोकोंसे कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy