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________________ २ षोडश अध्याय ( सप्तम अध्याय ) ३०७ सल्लेखनां करिष्येऽहं विधिना मारणान्तिकीम् । अवश्यमित्यदः शीलं संनिदध्यात्सदा हृदि ॥५७॥ सल्लेखनां-संलिख्यते-कृशीक्रियते शरीरं कषायाश्चानयेति । संनिदध्यात्-संयोजयेत् । उक्तं च- 'मरणान्तेऽवश्यमहं विधिना सल्लेखनां करिष्यामि । इति भावनापरिणतोऽनागतमपि पालयेदिदं शीलम् ॥' अपि च 'इयमेकैव समर्था धर्मस्वं मे मया समं नेतुम् । सततमिति भावनीया पश्चिमसल्लेखना भक्त्या ।' [पुरुषा. १७६, १७४ ] ॥५७॥ सहगामीकृतं तेन धर्मसर्वस्वमात्मनः । समाधिमरणं येन भवविध्वंसि साधितम् ॥५८॥ समाधिमरणं-रत्नत्रयैकाग्रतया प्राणत्यागः ॥५८॥ यत्प्रागुक्तं मनीन्द्राणां वृत्तं तदपि सेव्यताम् । सम्यक निरूप्य पदवीं शक्ति च स्वामुपासकैः ।।५९॥ वृत्तं-समितिगुप्त्याद्याचरणम् ।।५९॥ अथ प्रकृतमुपसंहरन्नौत्सर्गिकहिंसादिनिवृत्ति प्रति देशयति प्रयुङ्क्ते इत्यापवादिकों चित्रां स्वभ्यसन् विरतिं सुधीः । कालादिलब्धौ क्रमतां नवधौत्सगिकी प्रति ॥६॥ क्रमतां-उत्सहताम् । नवधा-मनोवाक्कायैः प्रत्येकं कृतकारितानुमतानां त्यागेन ॥६॥ 'मैं शास्त्रोक्त विधिके अनुसार मरणके समय होनेवाली सल्लेखनाको अर्थात् समाधिपूर्वक मरण अवश्य करूँगा।' इस सल्लेखना नामक शीलको श्रावक सदा हृदयमें रखे ॥५७।। जिस श्रावकने संसारका निर्मलन करनेवाले समाधिमरणको कर लिया, उसने व्यवहार निश्चय रत्नत्रयरूप धर्मको दूसरे भवमें जानेके लिए अपना साथी बना लिया ॥५॥ पहले अनगारधर्मामृतके चौथे अध्यायसे नौंवें अध्याय पर्यन्त जो मुनिराजोंका समिति गुप्ति आदि आचरण कहा है वह भी अपनी शक्ति और संयमकी भूमिकाको अच्छी तरहसे विचारकर श्रावकोंको पालना चाहिए ॥५९।। उक्त प्रकारसे नाना भेदवाली अपवादमार्गरूप हिंसादि विरतिको अच्छी रीतिसे पालता हुआ तत्त्वज्ञानी श्रावक काल, देश, बल, वीर्य आदि साधन सामग्री प्राप्त होनेपर मन, वचन, कायमें-से प्रत्येकके कृत, कारित, अनुमोदनारूप नौ प्रकारोंसे त्यागनेसे नव प्रकारकी औत्सर्गिक विरतिको धारण करनेका उत्साह करे ॥६०॥ विशेषार्थ-परिग्रह मुनियोंके अपवादका कारण है अतः परिग्रहको अपवाद कहते हैं । श्रावक परिग्रह रखता है अतः श्रावक धर्म अपवाद धर्म है। उसके नाना भेद हैं। और उत्सर्ग कहते हैं सर्वपरिग्रहके त्यागको। अतः मुनिधर्म उत्सर्गधर्म कहलाता है। उसमें हिंसा आदिका त्याग मन, वचन, काय तथा प्रत्येकके कृत, कारित, अनुमोदना इन नौ विकल्पोंसे किया जाता है अतः उसके नौ प्रकार हैं। जब श्रावक उत्कृष्ट श्रावककी चामें निष्पन्न हो जाये तो उसे मुनिधर्म स्वीकार करना चाहिए ॥६०॥ १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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