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________________ २४० धर्मामृत ( सागार) पूजयोपवसन् पूज्यान् भावमय्यैव पूजयेत् । प्रासुकद्रव्यमय्या व रागानं दूरमुत्सृजेत् ॥३९॥ भावमय्या-गुणानुस्मरणलक्षणया, भावपूजार्थत्वाद् द्रव्यपूजायाः। भावपूजा च सामायिकप्रसक्तत्वेनोपवसतः सिद्धव । प्रासुकद्रव्यमय्या अक्षतमौक्तिकमालादिप्रकृतया । उक्तं च 'प्रातः प्रोत्थाय ततः कृत्वा तात्कालिक क्रियाकल्पम् । निर्वतयेद् यथोक्तां जिनपूजां प्रासुकैर्द्रव्यैः ॥' [ पुरुषा. १५५ ] रागाङ्गं गीतनृत्यादि ॥३९॥ पवास के दिनसे पहलेके दिनके अर्ध भागमें उपवास ग्रहण करे। और निर्जन वसतिकामें जाकर सम्पूर्ण सावद्य योगको त्यागकर तथा सब इन्द्रियोंके विषयोंसे विरत होकर कायगुप्ति, मनोगुप्ति, वचनगुप्तिपूर्वक रहे। धर्मध्यानपूर्वक दिन बिताकर सन्ध्याकालीन कृतिकर्म करके पवित्र संस्तरेपर स्वाध्यायपूर्वक रात्रि बितावे । प्रातः उठकर प्रातःकालीन क्रियाकर्म करके प्रासुक द्रव्योंसे जिन भगवानकी पूजा करे। इसी विधिसे उपवासका दिन और दूसरी रात बिताकर तीसरे दिनका आधा भाग बितावे। इस प्रकार जो सम्पूर्ण सावद्य कार्योंको त्यागकर सोलह प्रहर बिताता है उसको उस समय निश्चय ही सम्पूर्ण अहिंसाव्रत होता है। यह सम्पूर्ण कथन आचार्य अमृतचन्द्रका है। अमितगतिने भी तदनुसार कथन करते हुए कहा है-उपवास स्वीकार करनेके दिन दूसरे प्रहरमें भोजन करके आचायके जाकर भक्तिपूर्वक वन्दना करके कायोत्सर्ग करे। फिर पंचांग प्रणाम करके आचार्यके वचनानुसार उपवास स्वीकार करके पुनः विधिपूर्वक कायोत्सर्ग करे। फिर आचार्यकी स्तुति करके वन्दना करे और दो दिन स्वाध्यायपूर्वक बितावे । आचार्यकी साक्षिपूर्वक ग्रहण किया हुआ उपवास निश्चल होता है। उपवासमें मन-वचन-कायसे समस्त भोगों और उपभोगोंका त्याग करना चाहिए और पृथ्वीपर प्रासुक संस्तर बनाकर उसपर सोना चाहिए। असंयमवर्धक समस्त आरम्भ छोड़कर मुनिकी तरह विरक्तचित्त रहना चाहिए। तीसरे दिन समस्त आवश्यक आदि करके अतिथिको भोजन करानेके बाद भोजन करना चाहिए। इस विधिसे किया गया एक भी उपवास पापको वैसे ही दूर करता है जैसे सूर्य अन्धकारको दूर करता है। आचार्य वसुनन्दिने भी ऐसा ही कथन किया है ( वसु. श्रा. २८८१-२८९ गा.) ॥३८|| उपवास करनेवाला पूज्य, देव, शास्त्र , गुरुकी भावमयी पूजासे ही पूजा करे। उसमें असमर्थ हो तो प्रासुक द्रव्यमयी पूजा करे। और रागके कारण गीत-नृत्य आदिको दूरसे ही छोड़ दे ॥३९ विशेषार्थ-अनुरागपूर्वक पूज्य व्यक्तियोंके गुणोंके स्मरणको भावपूजा कहते हैं। द्रव्यपूजा भी भावपजाके लिए ही की जाती है। वैसे तो उपवास करनेवाला जब सामायिक करता है तो भावपूजा होती ही है । जो उसमें असमर्थ हो अर्थात् द्रव्य के अवलम्बनके बिना अपने भावोंको स्थिर रखने में असमर्थ हो वह प्रासक द्रव्य अक्षत, अचित्त-फल-फल आदिसे पूजन करे । सचित्त द्रव्यसे पूजन करनेवालेको भी उपवासके दिन अचित्त द्रव्यसे ही पूजन करना चाहिए । तथा रागके कारणोंसे बचना चाहिए । आचार्य समन्तभद्रने उपवासके दिन १. पुरुषार्थ. १५२-१५७ श्लो. । २. अमित. श्रा. १२।१२५-१३२ श्लो. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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