________________
चतुर्दश अध्याय (पंचम अध्याय )
२३९ अथ यथागममित्यस्यार्थं चतुःश्लोक्या व्याचष्टे
पर्वपूर्वदिनस्यार्धे भुक्त्वाऽतिथ्याशितोत्तरम् । लात्वोपवासं यतिवद्विविक्तवति श्रितः ॥३६॥ धर्मध्यानपरो नीत्वा दिनं कृत्वाऽऽपराह्निकम् ।
नयेत्त्रियामा स्वाध्यायरतःप्रासुकसंस्तरे ॥३७॥ पर्वपर्वदिनस्य–सप्तम्यास्त्रयोदश्याश्च अर्धे प्रहरद्वये वा किंचित न्यूनेऽधिकेऽपि वा। समेऽप्यसमे ६ चांशेऽर्धशब्दस्य रूढत्वात्। अतिथ्याशितोत्तरं-अतिथेराशिताद्भोजनविधापनादनन्तरमतिथि भोजयित्वेत्यर्थः । यतिवत्य तिना तुल्यं, यथा यतिर्भोजनानन्तरमेवोपवासं गलाति विधिवत्सूरेश्च समीपं गत्वा पुनरुच्चारयति सावधव्यागारं शरीरसंस्कारमब्रह्म च सदा त्यजत्येवं प्रोषधे श्रावकोऽपि प्रवर्ततामित्यर्थः । ९ उक्तं च
'पञ्चानां पापानामलंक्रियारम्भगन्धपुष्पाणाम् ।
स्नानाञ्जननस्यानामुपवासे परिहृतिं कुर्यात् ।।' [ र. श्रा. १०७ ] ॥३६॥ धर्मध्यानपरः । ध्यानोपरमे स्वाध्यायादिरपि कार्य इति परशब्देन प्रधानार्थेन सच्यते । यदाह
'धर्मामृतं सतृष्णः श्रवणाभ्यां पिवतु पाययेद्वान्यान् ।
ज्ञानध्यानपरो वा भवतूपवसन्नतन्द्रालुः ॥' [ र. श्रा. १०८ ] आपरालिकं-सान्ध्यं क्रियाकल्पम् । एतेन निद्रालस्ये त्यजेदिति लक्षयति ॥३७॥
ततः प्राभातिकं कुर्यात्तद्वद्यामान् दशोत्तरान् ।
नीत्वातिथि भोजयित्वा भुञ्जीतालौल्यतः सकृत् ॥३८॥ तद्वत्-पूर्वोक्तषट्प्रहरवत् । अलौल्यतः-भोजने आसक्तिमकृत्वेत्यर्थः ॥३८॥ खुजाने के लिए नहीं उठाना चाहिए। और एकभक्त तो प्रसिद्ध है एक बार भोजन करना किन्तु वह भोजन एक ही स्थानपर करना चाहिए, बीचमें उठना नहीं चाहिए ॥३५
आगे चार श्लोकोंके द्वारा प्रोषधोपवासकी विधि आगमानुसार बताते हैं
पर्वसे पूर्व दिन अर्थात् सप्तमी और त्रयोदशीके आधे भागमें अर्थात् कुछ कम या कुछ अधिक दो पहर दिन होनेपर अतिथियोंको भोजन करानेके पश्चात् स्वयं भोजन करके मुनिकी तरह उपवासकी प्रतिज्ञा लेकर प्रासुक अथवा एकान्त स्थानमें रहे। और धर्मध्यानमें तत्पर रहते हुए दिन बितावे। तथा सन्ध्याकालीन क्रियाकर्म करके रात्रिको प्रासुक भूमिमें प्रासुक तृणोंसे तैयार किये गये शयन स्थानपर स्वाध्यायमें लगकर बितावे ॥३६-३७॥
पूर्वोक्त विधिसे छह प्रहर बितानेके बाद प्रातःकालीन आवश्यक आदि कर्म करे । और इसी तरह उपवास सम्बन्धी दिन-रातके आठ पहर तथा दूसरे दिनके दो पहर इन दस पहरोंको बिताकर अतिथिको भोजन करानेके पश्चात् बिना आसक्तिके एक बार भोजन करे ॥३८॥
विशेषार्थ-उपवासका समय अर्थात् सोलह प्रहर किस तरहसे बिताना चाहिए इसका पूरा विवरण पुरुषार्थसिद्धयुपायमें दिया है, उसीको अमितगति और वसुनन्दिने थोड़ा विकसित किया है। इन्हीं सबका निचोड सागारधर्मामृतमें आशाधरजीने दिया है। पुरुषार्थसिद्धयुपायमें कहा है-प्रतिदिन स्वीकृत किये गये सामायिक संस्कारको स्थिर करने के लिए दोनों पक्षोंके आधे भागमें अर्थात् अष्टमी, चतुर्दशीको उपवास अवश्य करे। इसकी विधि इस प्रकार है-समस्त आरम्भसे मुक्त होकर तथा शरीर आदिमें ममत्व त्यागकर प्रोषधो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org