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________________ चतुर्दश अध्याय ( पंचम अध्याय ) २३७ चतुर्भुक्त्युज्झनं-चतसृणां भुक्तीनां भोज्यानामशनादिद्रव्याणां भुक्तिक्रियाणां च त्यागः । एका हि भुजिक्रिया धारणकदिने, द्वे उपवासदिने, चतुर्थी च पारणकदिने प्रत्याख्यायते । एतेनेदमपि स्वाम्युक्तं तल्लक्षणमाक्षिपति 'चतुराहारविसर्जनमुपवासः प्रोषधः सकृद्भक्तिः । स प्रोषधोपवासो यदुपोष्यारम्भमाचरति ।।' [ र. श्रा. १०९ ] अत्र आरम्भमिति पारणकदिने सकृद्भुक्तिरित्यर्थः ॥३४॥ । एवमुत्तमं प्रोषधविधानमुक्त्वा मध्यमं जघन्यं च तदुपदेष्टुमाह उपवासाक्षमैः कार्योऽनुपवासस्तदक्षमैः। आचाम्लनिर्विकृत्यादि शक्त्या हि श्रेयसे तपः ॥३५॥ कहते हैं। अतः आचार्य समन्तभद्रकी व्युत्पत्ति ही अधिक संगत प्रतीत होती है। पं. आशाधरजीने अपनी टीकामें चतुर्भुक्तिके दो अर्थ किये हैं-चार प्रकारको मुक्ति और चार भुक्तिक्रिया । अर्थात् चारों प्रकारके भोज्य पदार्थोंका त्याग तथा चार बार भोजन करनेका त्याग प्रोषधोपवास है। अर्थात् उपवासके पहले दिन और दूसरे दिन एक-एक बार और उपवास के दिन दोनों बार इस तरह चार बारका भोजन जिस उपवासमें छोड़ा जाता है वह प्रोषधोपवास है। किन्तु केवल चारों प्रकारके आहारका त्याग या चार बार भोजनका त्याग तो एक तरहसे द्रव्य उपवास है, भाव उपवास या निश्चय उपवास नहीं है। जिसमें पाँचों इन्द्रियाँ अपने-अपने शब्द आदि विषयोंको ग्रहण करने में उदासीन रहती हैं उसे उपवास कहते हैं । पूज्यपाद स्वामीने 'उपवास' शब्दकी यही निरुक्ति की है और उसका अर्थ चारों प्रकारके आहारका त्याग किया है । आहारका त्याग इन्द्रियोंको शिथिल करनेके लिए ही किया जाता है। इसीसे पूज्यपाद स्वामीने लिखा है कि अपने शरीरके संस्कारके कारण स्नान, गन्ध, माला, आभरण आदिसे रहित तथा आरम्भरहित श्रावक किसी अच्छे स्थानमें जैसे साधुओंके निवास में या चैत्यालयमें या अपने प्रोषधोपवास गृह में धर्मकथाके चिन्तनमें मन लगाकर उपव स करे। आचाय समन्तभेद्रने भी उपवासमें पाँचों पाप, अलंकार, आरम्भ, गन्ध, पुष्प, स्नान और अंजनका त्याग कहा है । तथा दोनों कानोंसे बड़ी तृष्णाके साथ धर्मामृतका स्वयं श्रवण करने तथा दूसरोंके सुनाने और ज्ञान-ध्यानमें तत्पर रहनेको कहा है। पूज्यपाद स्वामीके ही अनुसार आचार्य अमितगतिने तथा चारित्रसारमें भी उपवासकी निरुक्ति की है ॥३४॥ इस प्रकार उत्तम प्रोषधका कथन करके अब मध्यम और जघन्य प्रोषधको बताते हैं जो उपवास करने में असमर्थ हैं उन्हें अनुपवास करना चाहिए । और जो अनुपवास भी करने में असमर्थ है उन्हें आचाम्ल तथा निविकृति आदि आहार करना चाहिए, क्योंकि शक्तिके अनुसार किया गया तप कल्याणके लिए होता है ॥३५।। १. 'शब्दादिग्रहणं प्रति निवृत्तौत्सुक्यानि पञ्चापि इन्द्रियाण्युपेत्य तस्मिन्वसन्तीत्युपवासः।' -सर्वा. सि. ७।२१ । २. रत्न. श्रा. १०७-१०८ श्लो. । ३. 'उपेत्याक्षाणि सर्वाणि निवृत्तानि स्वकार्यतः । वसन्ति यत्र स प्राज्ञरुपवासोऽभिधीयते ॥'-अमि. श्रा. १२।११९ । चारित्रसारमें भी इसी श्लोकको उद्धृत किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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