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चतुर्दश अध्याय (पंचम अध्याय ) स्पष्टम् । बाह्या अप्याहुः-'अभ्यासो हि कर्मणां कौशलमावहति । नहि सकृन्निपातमात्रेणोदबिन्दुरपि ग्राणि निम्नतामादधाति ॥३२॥ अथ तदतिचारपरिहारार्थमाह
पञ्चात्रापि मलानुज्झेदनुपस्थापनं स्मृतेः।
कायवाङ्मनसा दुष्टप्रणिधानान्यनादरम् ॥३३॥ अनुपस्थापनं स्मृते:--सामायिकेऽनकारयमित्यर्थः । अथवा सामायिकं मया कर्तव्यं न कर्तव्यमिति ६ वा, सामायिकं मया कृतं न कृतमिति वेति प्रबलप्रमादादस्मरणमतिचारः स्मतिमलत्वान्मोक्षमार्गानुष्ठानस्य । कायेत्यादि । दुष्प्रणिधानं सावद्ये प्रवर्तनम् । तच्च हस्तपादादीनामनिभूतत्वावस्थापनं कायदुष्प्रणिधानम् । वर्णसंस्काराभावोऽर्थानवगमश्चापलं च वाग्दुष्प्रणिधानम् । क्रोध-लोभ-द्रोहाभिमानेदियः कार्यव्यासङ्ग- ९ संभ्रमश्च मनोदुष्प्रणिधानम। एते त्रयोऽतिचाराः। मनोदष्प्रणिधानस्य स्मत्यनपस्थापनस्य
ऽतिचाराः। मनोदुष्प्रणिधानस्य स्मृत्यनुपस्थापनस्य चायं भेदः-- क्रोधाद्यावेशात्सामयिके मनसश्चिरमवस्थापनं प्रथमम् , चिन्तायाः परिस्पन्दनादैकारयेणानवस्थापनमन्यत् । अनादरमनुत्साहं प्रतिनियतवेलायां सामायिकस्याकरणं यथाकथंचिद्वा करणं करणानन्तरमेव भोजनादिव्यासञ्जनं १ च । न चात्राविधिकृताद्वरमकृतमित्यसूयावचनं प्रमाणीकृत्य भङ्गसंभावनया सामायिकस्याप्रतिपत्तिः कर्तव्या ।
है । अर्थात् जैसे पत्थरपर जलकी बूद निरन्तर टपकती रहे तो पत्थरमें गढ़ा पड़ जाता है वैसे ही अभ्याससे अत्यन्त कठिन भी सामायिक सरल हो जाती है ॥३२॥
सामायिकके अतिचारोंके त्यागका उपदेश देते हैं_____सामायिक व्रतका फल चाहनेवालेको अन्य व्रतोंकी तरह सामायिक व्रतमें भी स्मृतिको स्थिर न रखना, मन-वचन-कायका दुष्प्रणिधान और अनादर ये पाँच अतिचारोंको छोड़ना चाहिए ॥३३॥
विशेषार्थ-सामायिक व्रतके पाँच अतिचार हैं-स्मृतिका अनुपस्थापन, कायदुष्प्रणिधान, वचनदुष्प्रणिधान, मनदुष्प्रणिधान और अनादर । इनका स्पष्टीकरण इस प्रकार हैसामायिकमें एकाग्रताका न होना, अथवा, सामायिक मुझे करना चाहिए या नहीं करना चाहिए, या मैंने सामायिक की या नहीं की, इस प्रकार प्रबल प्रमादके कारण स्मरण न रहना प्रथम अतिचार है, क्योंकि मोक्षमार्गके अनुष्ठानका मूल स्मरण है। सावध कार्यों में प्रवृत्तिको दुष्प्रणिधान कहते हैं । हाथ-पैर आदिको निश्चल न रखना कायदुष्प्रणिधान है । सामायिकमें पाठ या मन्त्रका ऐसा उच्चारण करना कि कुछ भी अर्थबोध न हो सके या वचनमें चपलता होना वचनदुष्प्रणिधान है । सामायिक करते समय क्रोध, लोभ, द्रोह, अभिमान और ईर्ष्या आदिका होना तथा कार्यों में आसक्ति होनेसे मनका चंचल होना मनदुष्प्रणिधान है। मनदुष्प्रणिधान और स्मृतिअनुपस्थापनमें यह अन्तर है कि क्रोध आदिके आवेशसे सामायिकमें मनका चिरकाल तक स्थिर न रहना मनदुष्प्रणिधान है और चिन्ताकी चंचलतासे एकाग्ररूपसे न रहना स्मृति अनुपस्थापन है। अनुत्साहको अनादर कहते हैं । नियत समय पर सामायिक न करना या जिस किसी तरह करना और करनेके बाद ही तुरन्त खाने-पीने आदिमें लग जाना अनादर है। ये सब जानकर यदि कोई 'बिना विधिके सामायिक करनेसे तो न करना अच्छा है' ऐसे वचनको प्रमाण मानकर अतिचार लगनेकी सम्भावनासे सामायिक करने में उत्साहित न हो तो यह उचित नहीं है। प्रारम्भमें तो मुनियोंके भी एक देश विराधना होना सम्भव है किन्तु इतने मात्रसे सामायिक व्रत भंग नहीं होता। 'मैं मनसे
१. 'योगदुष्प्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ।'-त. सू. ७।३३।
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