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________________ २४ धर्मामृत ( सागार) भगवती आराधनामें केवल इसीका वर्णन है। आशाधरजीने उसीका दोहन करके इस अध्यायमें सल्लेखनाके सम्बन्धमें सभी उपयोगी बातें निबद्ध कर दी है। उसे पढ़ने से ज्ञात होता है कि समाधिमरणका कितना महत्त्व था। उसके लिए आचार्य भी अपने संघका भार सुयोग्य शिष्यको देकर दूसरे संघमें समाधिमरणके लिए जाते थे। उसके लिए सबसे प्रथम समाधिमरण कराने में दक्ष निर्यापकाचार्यकी खोज की जाती थी। और निर्यापकाचार्य तथा साधुसंघ उस एक व्यक्तिकी समाधिमें लग जाता है। आशाधर उसे आर्योंका महायज्ञ कहते हैं । सचमुच में महायज्ञ यही है। इसीमें कर्मोकी आहुति देकर श्रावक मोक्षका पात्र बनता है। इस तरह सागारधर्मामृत में प्रारम्भिक श्रावकसे लेकर उत्कृष्ट श्रावक तक की सब क्रियाएँ विस्तारसे वर्णित की गयी हैं। अन्त में समाधिमरणमें स्थित श्रावकको लक्ष्य करके कहा है "शुद्धं श्रुतेन स्वात्मानं गृहीत्वार्य स्वसंविदा। भावयंस्तल्लयापास्तचिन्तो मृत्वैहि निर्वृतिम् ॥" 'हे आर्य ! श्रुतज्ञानके द्वारा शुद्ध-द्रव्यकर्म, नोकर्म भावकर्मसे रहित अपनी आत्माका निश्चय करके और स्वसंवेदनके द्वारा उसका अनुभव करके उसीमें लीन होकर सब विकल्पोंको दूर करके मोक्षको प्राप्त करो।' इस एक ही श्लोकके द्वारा आशाधरजीने मोक्षप्राप्तिका मार्ग संक्षेपमें बतला दिया है। सबसे प्रथम मुमुक्षको आत्माके शुद्ध स्वरूपका निर्णय जिनागमके अभ्याससे करना चाहिए। उसके पश्चात् स्वसंवेदनके द्वारा उसकी अनुभूति करना चाहिए। वही स्वानुभूति है, उसीके द्वारा उसीमें लीन होकर उसे प्राप्त किया जाता है । ऐसी शुद्धात्माकी उपलब्धिका नाम ही मोक्ष है । उसीके लिए सब बाह्याचार हैं। अन्तमें इसके अनुवादके सम्बन्धमें दो शब्द कहना चाहते हैं । इसका अनुवाद प्रारम्भ करते समय भव्यकमद चन्द्रिका टीका तो हमारे सामने थी और उसमें चर्चित विषयोंको हमने यथास्थान लिया है किन्तु ज्ञानदीपिकाकी प्राप्ति विलम्बसे होनेसे उसका पूरा उपयोग अनुवादमें नहीं हो सका। ज्ञानदीपिका पूर्वाचार्योंके उद्धरणोंसे ओत-प्रोत है । श्रावकाचारमें प्रतिपादित सभी विषयोंसे सम्बद्ध उद्धरण उसमें संकलित है और इस दृष्टिसे वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। धर्मामृतका ज्ञानदीपिका टीकाके साथ प्रकाशित यह संस्करण स्व. डॉ. उपाध्येकी योजनाका ही सुपरिणाम है । खेद है कि वे इसे न देख सके । अपनी योजनाको कार्यरूपमें परिणत देखकर अवश्य ही उन्हें स्वर्गमें आनन्दका अनुभव होगा। इन शब्दों के साथ उनका पुण्यस्मरण करते हुए हम उनके प्रति बहुभानपूर्वक अपनी इस कृतिको उनकी स्मतिमें उपहृत करते हैं। -कैलाशचन्द्र शास्त्री दीपावली वी. नि. सं. २५०४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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