________________
२२६
धर्मामृत ( सागार )
शिक्षाव्रतानि देशावकाशिकादीनि संश्रयेत् ।
श्रुतिचक्षुस्तानि शिक्षाप्रधानानि व्रतानि हि ॥२४॥
देशावकाशिकादीनि । आदिशब्देन सामायिक प्रोषधोपवासातिथिसंविभागा गृह्यन्ते । यत्स्वामी - 'देशावका शिकं वा सामयिकं प्रोषधोपवासो वा ।
वैयावृत्यं शिक्षाव्रतानि चत्वारि शिष्टानि ॥' र. श्री. ९१ ] ॥२४॥
श्रुतज्ञानरूपी नेत्रवाले श्रावकको देशावकाशिक आदि शिक्षाव्रतोंको धारण करना चाहिए; क्योंकि ये व्रत शिक्षा प्रधान होते हैं ||२४||
विशेषार्थ - शिक्षाव्रत चार हैं- देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और अतिथिसंविभाग। यह हम पहले लिख आये हैं कि यद्यपि सभी आचार्योंने गुणव्रत तीन और शिक्षाव्रत चार कहे हैं । किन्तु गुणव्रत और शिक्षाव्रत के नामों में अन्तर है । इन दोनों व्रतों को शीलवत कहते हैं और शीलव्रतके सात नामों में कोई अन्तर नहीं है। पूज्यपाद स्वामीने शीको व्रतकी रक्षा के लिए बतलाया है । भगवती आराधनामें भी कहा है कि जैसे धान्यकी रक्षा के लिए बाड़ होती है वैसे ही व्रतकी रक्षा के लिए शील है । अमृतचन्द्रजीने भी यही कहा है कि जैसे चारदीवारी नगरकी रक्षा करती है वैसे ही शील व्रतोंकी रक्षा करते हैं । अतः सातों शील अणुव्रतोंके रक्षक हैं इसमें कोई मतभेद नहीं है। किन्तु जब सात शीलोंको गुणव्रत और शिक्षाव्रत में विभाजित करते हैं तो मतभेद स्पष्ट हो जाता है । गुणव्रत क्यों कहते हैं इसको तो रत्नकरण्डमें स्पष्ट कर दिया है कि गुणोंको बढ़ानेके कारण गुणव्रत कहते हैं । किन्तु शिक्षाव्रत क्यों कहते हैं यह पं. आशाधरजीसे पहले किसी ग्रन्थ में देखने में नहीं आया । आशाधरजी भी केवल इतना कहते हैं कि शिक्षा प्रधान होनेसे इन्हें शिक्षाव्रत कहते हैं । किन्तु इनसे किस तरहकी शिक्षा मिलती है यह स्पष्ट नहीं करते । और आशाधरजीने भी जो गुणव्रत और शिक्षाव्रतकी व्युत्पत्ति की है उसका आधार भी श्वेताम्बराचार्यका योगशास्त्र प्रतीत होता है । श्वेताम्बर साहित्य में यही कथन पाया जाता है। गुणव्रत और शिक्षाव्रतमें अन्तर बतलाते हुए कहा है कि सामायिक, देशावकाशिक, प्रोषधोपवास और अतिथिसंविभाग, ये चारों स्वल्पकालिक होते हैं । सामायिक, देशावकाशिक तो प्रतिदिन किये जाते हैं और प्रोषधोपवास तथा अतिथिसंविभाग प्रतिनियत दिन ही किये जाते हैं प्रतिदिन नहीं किये जाते । अतः गुणव्रतोंसे इनका भेद है । गुणव्रत तो प्रायः जीवनपर्यन्त होते हैं। स्थिति यह है कि दिग्वत और अनर्थदण्डव्रतको सबने गुणव्रत माना है । तथा सामायिक प्रोषधोपवास और अतिथिसंविभागको एक वसुनन्दिके सिवाय सबने शिक्षाव्रत माना है । कुन्दकुन्द और उनका अनुसरण करनेवाले देशव्रत नहीं मानते वे सल्लेखनाको शिक्षाव्रतों में लेते हैं इस तरह जो देशव्रत मानते हैं उन सबमें केवल देशव्रत और भोगोपभोगपरिमाणव्रतको लेकर मतभेद है । एक पक्ष देशव्रतको शिक्षाव्रत और भोगोपभोगपरिमाणको गुणव्रत मानता है। दूसरा पक्ष भोगोपभोगपरिमाणको गुणव्रत और देशव्रतको शिक्षा
१. ' व्रत परिरक्षणार्थं शीलम् ।' -सवार्थ. सि. ७।२४ ॥
२. 'तिस्सेव रक्खणट्टं सीलाणि वदीव सस्सस्स ।'-भ. आ. ७८८ गा. ।
३. ' परिषय इव नगराणि व्रतानि किल पालयन्ति शीलानि । - पुरुषार्थ, १३६ श्लो. । ४. देखो, अभिधान राजेन्द्र में 'सिक्खावय' शब्द |
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org