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________________ १२३ द्वादश अध्याय (तृतीय अध्याय) देशनिकोऽथ वतिकः सामयिकी प्रोषधोपवासी च। सचित्तदिवामैथुनविरतौ गृहिणोऽणुयमिषु हीनाः षट् ॥२॥ अब्रह्मारम्भपरिग्रहविरता वणिनस्त्रयो मध्याः । अनुमतिविरतोद्दिष्टविरतावुभौ भिक्षुको प्रकृष्टौ च ॥३।। अथ मानन्तर्यार्थः प्रत्येक योज्यः । अणुयमिषु-श्रावकेषु मध्ये ॥२॥ भिक्षुको अल्पेकः प्रकृष्टौ च । चकाराद्-वणिनी च । उक्तं च 'षडत्र गृहिणो ज्ञेयास्त्रयः स्युर्ब्रह्मचारिणः। भिक्षुको द्वौ तु निर्दिष्टौ ततः स्यात्सर्वतो यतिः ॥' [ सो. उपा. ८५६ ] 'आद्यास्तु षट् जघन्याः स्युर्मध्यमास्तदनु त्रयः । शेषो द्वावुत्तमावुक्तौ जेनेषु जिनशासने ॥ [ चारित्रसार, पृ. २० ] ॥३॥ अथ नैष्ठिकोऽपि यादृशः सन् पाक्षिकव्यपदेशं लभते तादृशं दर्शयति दुर्लेश्याभिभवाज्जातु विषये क्वचिदुत्सुकः। स्खलन्नपि क्वापि गुणे पाक्षिकः स्यान्न नैष्ठिकः॥४॥ दुर्लेश्याभिभवात्-दूर्लेश्यया कृष्णनीलकापोतीनामन्यतमया। अभिभव:-कृतश्चिन्निमित्ताच्चेतनशक्तेस्तादृक् संस्कारोबोधस्तस्माद्धेतोस्तं वाश्रित्य । क्वचित्-कामिन्यादीनामन्यतमे। उत्सुकः- १५ सोत्कण्ठाभिलाषः । स्खलन्–अतीचारं गच्छन् , अनभ्यस्तपूर्वत्वात्संयमस्य दुर्धरत्वाद्वा मनसः । यद्बद्धाः'जोइय विसमिय जोयगइ' इत्यादि । क्वापि-मद्यविरत्यादीनामन्यतमे ॥४॥ दर्शनिक, व्रतिक, सामयिकी, प्रोषधोपवासी, सचित्तविरत, दिवामैथुनविरत ये छह गृहस्थ कहलाते हैं तथा श्रावकोंमें जघन्य होते हैं। अब्रह्मविरत, आरम्भविरत और परिग्रहविरत, ये तीन वर्णी या ब्रह्मचारी कहलाते हैं और श्रावकोंमें मध्यम होते हैं। अनुमतिविरत और उद्दिष्टविरत ये दो भिक्षुक कहे जाते हैं और श्रावकोंमें उत्तम होते हैं ॥२-३॥ विशेषार्थ-सभी ग्रन्थोंमें ग्यारह प्रतिमाओंका यही क्रम पाया जाता है। अपवाद है सोमदेवका उपासकाचार। उसमें तीसरी प्रतिमाका नाम अर्चा है। अर्चा पजाक उन्होंने तीसरी प्रतिमामें पूजापर विशेष जोर दिया है। तथा पाँचवीं प्रतिमा है आरम्भ त्याग और आठवीं प्रतिमा है सचित्त त्याग । इस तरह व्यतिक्रम है। सोमदेवने भी आदिकी छह प्रतिमावालोंको गृहस्थ, आगेकी तीन प्रतिमावालोंको ब्रह्मचारी और दो अन्तिमको भिक्षुक कहा है। चारित्रसारमें प्रथम छहको जघन्य, उनसे आगेके तीनको मध्यम और दो अन्तिमको उत्कृष्ट कहा है ॥२-३॥ नैष्ठिक भी जिस अवस्था में पाक्षिक कहलाता है उस अवस्थाको कहते हैं कृष्ण, नील या कापोत लेश्यामें-से किसी एक लेश्याके प्रभावसे चेतनशक्तिके पुराने संस्कारके उद्बुद्ध होनेसे किसी एक व्रतमें अतिचार लगानेवाला नैष्ठिक श्रावक नैष्ठिक नहीं रहता, पाक्षिक ही होता है ॥४॥ १. 'दंसण वय सामाइय पोसह सच्चित्तराइभत्तीय । वंभारंभ परिग्गह अणुमण उद्दिट्ट देसविरदेदे ॥' चारित्तपाहुण २१, प्रा. पंचसंग्रह १।१३६ । वारस अणुवेक्खा ६९, गो. जी. ४७६ । वसु. श्रा. ४ । महापु.१०।१९-१६० । 'मूलव्रतं व्रतान्यर्चा पर्वकर्माकृषिक्रियाः। दिवा नवविधं ब्रह्म सचित्तस्य विवर्जनम् ॥ परिग्रहपरित्यागे मुक्तिमात्रानुमान्यता। तद्धानौ च वदन्त्येतान्येकादश यथाक्रमम् ॥'-सो. उ., ८५३-८५४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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