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________________ १२२ धर्मामृत ( सागार) वृद्धिहानी न जानाति न मूढः स्वपरान्तरम् । अहंकारग्रहग्रस्तः समस्तां कुरुते क्रियाम् ।। श्लाघितो नितरां दत्ते रणे मर्तुमपीहते । परकीययशोध्वंसी युक्त: कापोतलेश्यया ॥ समदृष्टिरविद्विष्टो हिताहितविवेचकः । वदान्यो सदयो दक्षः पीतलेश्यो महामनाः ॥ शुचिर्दानरतो भद्रो विनीतात्मा प्रियंवदः । साधुपूजोद्यतः साधुः पद्मलेश्योऽनघक्रियः ।। निनिदानोऽनहंकारः पक्षपातोज्झितोऽशठः। रागद्वेषप्राचीनः शुक्ललेश्यः स्थिराशयः ।।' [ अमित. पं. सं. ११२७२-२८१ ] शोभना तेजःपद्मशुक्लानामन्यतमा लेश्या यस्यासौ सुलेश्यः। सदृष्टिपाक्षिकाभ्यामतिशयेन सुलेश्यः १२ सुलेश्यतरः, उत्तमसंवेगप्राप्तत्वात् । यदाह 'तेजः पद्मा तथा शुक्ला लेश्यास्तिस्रः प्रशस्तिकाः । संवेगमुत्तमं प्राप्तः क्रमेण प्रतिपद्यते ॥ [ ] लेश्याविशुद्धयादिनैव च महाव्रतिनोऽपि सद्गतिः । यदाह 'यो यया लेश्यया युक्तः कालं कुर्यान्महाव्रती। तल्लेश्ययैव स स्वर्गे तल्लेश्यायुजि जायते ।' [ ] ॥१॥ अथ दर्शनिकादीनुद्दिशंस्तेषां गृहित्व-ब्रह्मचारित्व-भिक्षुकत्वानि जघन्य-मध्यमोत्तमत्वानि च विभक्तुमार्याद्वयमाहशोक करनेवाला, हिंसक, क्रूर, चोर, मूर्ख, ईर्ष्या करनेवाला बहुत सोनेवाला, कामुक, कृत्यअकृत्यका विचार न करनेवाला, महा धन-धान्यमें अति आसक्त प्राणी नील लेश्यावाला होता है। बहुत शोक, बहुत भय करनेवाला, निन्दक, दूसरोंकी चुगली करनेवाला, दूसरोंका तिरस्कार करनेवाला, अपनी प्रशंसा करनेवाला, अपनी प्रशंसासे प्रसन्न होनेवाला, किसीका विश्वास न करनेवाला और अपनी ही तरह दूसरोंको भी माननेवाला, हानि-लाभकी परवाह न करनेवाला, युद्ध में मरने-मारनेको तैयार व्यक्ति कापोतलेश्यावाला है। सर्वत्र समदृष्टि, कृत्य-अकृत्य और हित-अहितको जाननेवाला, दया-दानमें लीन, विद्वान, पीतलेझ्यावाला होता है । त्यागी, क्षमाशील, भद्र, सरल परिणामी, साधुओंकी पूजामें तत्पर जीव पद्मलेश्यावाला होता है । सर्वत्र समभावी, पक्षपातसे रहित, निदान न करनेवाला, और राग-द्वेषसे रहित आत्मा शुक्ललेश्यावाला होता है। जो उत्तम संवेग भाव रखता है उसके पीत-पद्मशक्ललेश्या होती है। पाक्षिकसे नैष्ठिककी लेश्या प्रशस्त होती है। तथा नैष्ठिकके भी ग्यारह भेदोंमें उत्तरोत्तर प्रशस्त लेश्या होती है । कहा है- 'जो उत्तम संवेगभावको प्राप्त होते हैं उनके क्रमसे पीत-पद्म-शुक्ल तीन प्रशस्त लेश्या होती हैं।' लेश्याविशुद्धि आदिसे ही महाव्रतीकी भी सद्गति होती है । कहा है- 'जो महाव्रती जिस लेश्यासे मरण करता है वह उस लेश्यासे ही उसी लेश्यावाले स्वर्गमें जन्म लेता है' ॥१॥ दर्शनिक आदिका नामोल्लेख करते हुए उनके गृहस्थ, ब्रह्मचारी और भिक्षुक तथा जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद दो पद्योंसे कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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