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________________ एकादश अध्याय (द्वितीय अध्याय) अपि च 'बिम्बाफेलोन्नतियवोन्नतिमेव भक्त्या ये कारयन्ति जिनसद्म जिनाकृति च । पुण्यं तदीयमिह वागपि नैव शक्ता स्तोतुं परस्य किमु कारयितुव॑यस्य ।।' [ पद्म. पञ्च. ७।२२] ॥३५॥ अथ शास्त्रविदामपि प्रायः प्रतिमादर्शनेनैव देवाधिदेवसेवापरां मतिं कुर्वाणं कलिकालमपवदन्ते धिग्दुषमाकालरात्रि यत्र शास्त्रदृशामपि। चैत्यालोकादृते न स्यात् प्रायो देवविशा मतिः ॥३६॥ आचार्य पद्मनन्दि, आचार्य वसुनन्दि आदिने मन्दिर और मूर्ति निर्माणपर बहुत जोर दिया है। आचार्य अमितगतिने कहा है जो जिनेन्द्रकी अंगष्ठ प्रमाण भी मर्ति बनवाता है उससे अविनाशी लक्ष्मी दूर नहीं है। वसुनैन्दी और पद्मनन्दिने उनसे भी आगे बढ़कर कहा है कि जो कुन्दुरुके पत्ते के बराबर जिनालय और उसमें जौ के बराबर प्रतिमाका निर्माण कराते हैं उनके पुण्यका वर्णन वाणीसे नहीं हो सकता । यह तत्कालीन परिस्थितिकी पुकार है। आचार्य पद्मनन्दिने अपने समयका चित्रण करते हुए लिखा है-'इस दुषमा नामके पंचम कालमें जिनेन्द्र भगवान के द्वारा प्ररूपित धर्म क्षीण हो गया है। साधर्मी जन बहुत थोड़े हैं, मिथ्यात्वरूपी अन्धकार बहुत फैला है। ऐसे में जो जिनबिम्ब और जिनालयमें भक्ति रखता हो वह भी दिखाई नहीं देता । फिर भी जो विधिपर्वक जिनबिम्ब और जिनालयका निर्माण कराता है वह वन्दनीय है। आशाधरजीके समयमें तो मारवाड़में सहाबुद्दीन गोरीका आक्रमण हो गया था। फिर भी उन्होंने पत्ते बराबर मन्दिर और जौ बराबर मूर्ति बनवानेकी बात नहीं कही, तथा जिनबिम्ब और जिनमन्दिरके साथ साधुओंके निवासस्थान और स्वाध्यायशाला ( ग्रन्थागार ) भी बनवानेपर जोर दिया यह उनकी दूरदर्शिताका परिचायक है ॥३५॥ आगे कलिकालकी निन्दा करते हैं इस पंचम कालरूपी मरणरात्रिको धिक्कार हो, जिसमें शास्त्र ही जिनकी आँखें हैं प्रायः उन विद्वानोंकी भी अन्तःकरण प्रवृत्ति देवदर्शनके बिना अन्यकी शरण न लेकर एकमात्र जिनदेवको ही भजनेवाली नहीं होती ॥३६॥ १. दलो- मु. । २. 'येनांगुष्ठप्रमाणाएं जैनेन्द्री क्रियतेऽङ्गिना। तस्याप्यनश्वरी लक्ष्मीन दुरे जातु जायते ॥ --सुभाषित., ८७६ श्लो.। ३. 'कुत्थंभरिदलमेते जिणभवणे जो ठवेई जिणपडिमं । सरिसवमेतं पि लहेइ सो णरो तित्थयरपुण्णं ॥-वसु. श्रा. ४८१ गा.. ४. 'काले दुःखमसंज्ञके जिनपतेधर्म गते क्षीणतां तुच्छे सामयिके जने बहुतरे मिथ्यान्धकारे सति । चैत्ये चैत्यगृहे च भक्तिसहितो यः सोऽपि नो दृश्यते यस्तत्कारयते यथाविधि पुनर्भव्यः स वन्द्यः सताम्' ।।-पद्म. पञ्च. ७॥२१॥ सा.-११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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