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धर्मामृत (अनगार)
अथाहारकशरीरसंपदपि पुण्यपवित्रमेत्याह
प्राप्याहारकदेहेन सर्वज्ञं निश्चितश्रुताः ।
योगिनो धर्ममाहात्म्यान्नन्दन्त्यानन्दमेदुराः ॥४५॥
प्राप्येत्यादि
प्रमत्तसंयतस्य यदा श्रुतविषये क्वचित् संशयः स्यात्तदा क्षेत्रान्तरस्थतीर्थंकरदेवात्तं निराकर्तुमसावाहारक६ मारभते । तच्च हस्तमात्रं शुद्धस्फटिकसंकाशमुत्तमाङ्ग ेन निर्गच्छति । तन्न केनचिद् व्याहन्यते, न किमपि व्याहन्ति । तच्चान्तमुहूर्तेन संशयमपनीय पुनस्तत्रैव प्रविशति । आनन्दमेदुरा:- प्रीतिपरिपुष्टाः ॥४५॥
आगे कहते हैं कि आहारकशरीररूप सम्पत्ति भी पुण्यके उदयसे ही मिलती हैधर्मके माहात्म्यसे आहारकशरीरके द्वारा केवलीके पास जाकर और परमागमके अर्थका निर्णय करके मुनिजन आनन्दसे पुष्ट होते हुए ज्ञान और संयम से समृद्ध होते हैं ॥४५॥ विशेषार्थ - जो मुनि चारित्र विशेषका पालन करते हुए आहारक शरीरनामकर्म नामक पुण्य विशेषका बन्ध कर लेते हैं, भरत और ऐरावत क्षेत्र में रहते हुए यदि उन्हें शास्त्रविषयक कोई शंका होती है और वहाँ केवलीका अभाव होता है तब तत्त्वनिर्णयके लिए महाविदेहों में केवली के पास जानेके लिए आहारकशरीरकी रचना करते हैं क्योंकि अपने औदारिक शरीर से जानेपर उनका संयम न पलनेसे महान असंयम होता है । वह आहारकशरीर एक हाथ प्रमाण होता है, शुद्ध स्फटिकके समान धवल वर्ण होता है और मस्तक से निकलता है। न तो कोई उसे रोक सकता है और न वही किसीको रोकता है। एक अन्तमुहूर्त में संशयको दूर करके पुनः मुनिके हो शरीरमें प्रविष्ट हो जाता है । इसे ही आहारक समुद्घात कहते हैं। कहा भी है
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आहारक शरीर नामकर्मके उदयसे प्रमत्त संयत गुणस्थानवर्ती मुनिके आहारक शरीर होता है । यह असंयम से बचाव के लिए तथा सन्देहको दूर करनेके लिए होता है। मुनि जिस क्षेत्र में हों उस क्षेत्रमें केवली श्रुतकेवलीका अभाव होनेपर तथा विदेह आदि क्षेत्रमें तपकल्याणक आदि सम्पन्न होता हो या जिनेन्द्रदेव और जिनालयोंकी वन्दना करनी हो तो उसकी रचना इस प्रकारकी होती है - वह मस्तकसे निकलता है, धातुसे रहित होता है, शुभ होता है, संहननसे रहित होता है, समचतुरस्र संस्थानवाला होता है, एक हाथ प्रमाण और प्रशस्त उदयवाला होता है । व्याघात रहित होता है, जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त होती है । आहारक शरीर पर्याप्तिके पूर्ण होनेपर कदाचित् मुनिका मरण भी हो सकता है।
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१. आहारस्सुदयेण पमत्तविरदस्स होदि आहारं । असंजम परिहरणट्टं संदेहविणासणट्टं च ॥
णियखेत्तं केवलिदुगविरहे णिक्कमणपहुदि कल्लाणे । परखेत्ते संवित्ते जिणजिणघरवंदणट्टं च ॥ उत्तम अंगहि हवे धादुविहीणं सुहं असंघडणं । सुहसंठाणं धवलं हत्थपमाणं परत्युदयं ॥ अवाघादी अंतमुत्तकालट्ठिदी जहण्णिदरे । पज्जत्ती संपुण्णे मरणं पि कदाचि संभवइ ॥
- गो. जीव, गा. २३५-२३८
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