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________________ प्रथम अध्याय अथ कामदेवत्वमपि धर्मविशेषेण सम्पद्यत इत्याहयासां भ्रूभङ्गमात्रप्रदरदरभरप्रक्षरत्सत्त्वसारा वीराः कुर्वन्ति तेऽपि त्रिभुवनजयिनश्चाटुकारान् प्रसत्त्य । तासामप्यङ्गनानां हृदि नयनपथेनैव संक्रम्य तन्वन् याच्याभङ्गन दैन्यं जयति सुचरितः कोऽपि धर्मेण विश्वम् ॥४३॥ विद्येशीभूय धर्माद्वरविभवभरभ्राजमानैविमान व्याम्नि स्वैरं चरन्तः प्रिययुवतिपरिस्पन्दसान्द्रप्रमोदाः । दीव्यन्तो दिव्यदेशेष्वविहतमणिमाद्यद्भतोत्सृप्तिदृप्ता, निष्क्रान्ताविभ्रमं धिग्भ्रमणमिति सुरान् गत्यहंयून् क्षिपन्ति ॥४४॥ परिस्पन्द:-शृङ्गाररचना। दिव्यदेशेसु-नन्दनकैलासान्तरद्वीपादिषु । अणिमादयः-अणिमा महिमा लघिमा गरिमा ईशित्वं प्रागम्यं ( प्राकाम्यं) वशित्वं कामरूपित्वं वेति । उत्सृप्तिः-उद्गतिः । निष्क्रान्ताविभ्रमं-देवीनामनिमेषलोचनतया भ्रूविकारानवतारादेवमुच्यते । गत्यहंयून-मानुषोत्तरपर्वताद् १२ बहिरभि गमनेन गर्वितान् । क्षिपन्ति--निन्दन्ति ॥४४॥ है और फिर नारायण उसी चक्रसे प्रतिनारायणका मस्तक काटकर विजयापर्यन्त तीनखण्ड पृथ्वीका स्वामी होकर अपने बड़े भाई बलभद्र के साथ भोग भोगता है और मरकर नियमसे नरकमें जाता है। पूर्वजन्ममें निदानपूर्वक तप करनेसे संचित हुए पुण्यका यह परिणाम है कि सांसारिक सुख तो प्राप्त होता है किन्तु उसका अन्त दुःखके साथ होता है क्योंकि मिथ्यात्वके प्रभावसे उस पुण्यके फलका अन्त नरक है। आगे कहते हैं कि कामदेवपना भी धर्मविशेषका ही फल है तीनों लोकोंको जीतनेकी शक्ति रखनेवाले जगत् प्रसिद्ध वीर पुरुष भी जिन स्त्रियों के केवल कटाक्षपातरूपी बाणसे अतिपीड़ित होकर अपना विवेक और बल खो बैठते हैं और उनकी प्रसन्नताके लिए चाटुकारिता करते हैं-चिरौरी आदि करते हैं, उन स्त्रियोंके भी हृदयमें दृष्टिमार्ग मात्रसे प्रवेश करके उनकी प्रार्थनाको स्वीकार न करनेके कारण उनके मनस्तापको बढ़ानेवाले अखण्डितशील विरले पुरुष ही धर्मके द्वारा विश्वको वशमें करते हैं ॥ ४३ ॥ आगे कहते हैं कि विद्याधरपना भी धर्मविशेषसे प्राप्त होता है धर्मके प्रतापसे विद्याधर होकर ध्वजा, माला, घण्टाजाल आदि श्रेष्ठ विभवके प्रकर्षसे शोभायमान विमानोंमें स्वच्छन्दतापूर्वक आकाशमें विचरण करते हैं, साथमें तरुणी वल्लभाओंकी शृंगार-रचनासे उनका आनन्द और भी घना हो जाता है। वे अणिमा-महिमा आदि आठ विद्याओंके अद्भुत उद्गमसे गर्विष्ठ होकर नन्दनवन, कुलाचल, नदी, पर्वत आदि दिव्य देशोंमें क्रीड़ा करते हुए मानुषोत्तर पर्वतसे बाहर भी जा सकनेकी शक्तिसे गर्वित देवके भी भ्रमणको धिक्कारते हुए उनका तिरस्कार करते हैं क्योंकि देवांगनाओंकी आँखें निर्निमेष होती हैं-उनकी पलकें नहीं लगतीं अतः कटाक्ष निक्षेपका आनन्द स्वर्गमें नहीं है ॥४४॥ विशेषार्थ-विद्याधर मनुष्य होनेसे मनुष्यलोकसे बाहर नहीं जा सकते। किन्तु देव बाहर भी विचरण कर सकते हैं। किन्तु फिर भी विद्याधर देवोंसे अपनेको सुखी मानते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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