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प्रथम अध्याय
३३
श्रेयोनुबन्धि–अविच्छिन्नकल्याणम् । वज्रसार:-वज्रस्य सार इव अभि(भे-)द्यतमत्वात् । त्यागप्रायभोगा:-त्यागोऽर्थिषु संविभागः प्रायेण बाहुल्येन भोगे अनुभवे यस्याः । सततं-यावज्जीवम् । उदयिनी-दिने दिने वर्धमाना । परार्ध्या-उत्कृष्टा शुश्रूषादिगुणसंपन्नत्वाद् । आदेया-अनुल्लया। ३ सदस्या-सभायां पट्वी । व्यवहृतिः-हिते प्रवृत्तिरहितानिवृत्तिश्च । प्रणयिपरवशं-बन्धुमित्रादीनामेव परतन्त्रं न शत्रूणाम् ॥२९॥ अथ पुण्यस्य बहुफलयोगपद्यं दर्शयतिचिद्भूम्युत्थः प्रकृतिशिखरिश्रेणिरापूरिताशा
चक्रः सज्जीकृतरसभरः स्वच्छभावाम्बुपूरैः। नानाशक्ति-प्रसव-विसरः साधुपान्थौघसेव्यः,
पुण्यारामः फलति सुकृतां प्रार्थिताल्लुम्बिशोर्थान् ॥३०॥ चित्-चेतना पुण्यस्य जीवोपश्लिष्टत्वात् । प्रकृतयः-सद्वेद्यादयः । शिखरिणः-वृक्षाः । आशाःभविष्यार्थवाञ्छा दिशश्च । रस:-विपाको मधुरादिश्च । भावः-परिणामः । विसरः-समूहः । सुष्ठु- १२ शोभनं तपोदानादिकृतवताम् । लुम्बिश:-त्रिचतुरादिफलस्तोमं प्रशस्तं कृत्वा ॥३०॥
अथ सहभाविवाञ्छितार्थफलस्तोमं पुण्यस्य लक्षयतिपियनयिकैश्च विक्रमकलासौन्दर्यचर्यादिभि
गोष्ठीनिष्ठरसैर्नृणां पृथगपि प्रायः प्रतीतो गुणैः । सम्यकस्निग्ध-विदग्ध-मित्रसरसालापोल्लसन्मानसो,
धन्यः सौधतलेऽखिलर्तुमधुरे कान्तेक्षणैः पीयते ॥३१॥ आगे बतलाते हैं कि पुण्यसे एक साथ बहुत फल प्राप्त होते हैं
पुण्य उपवनके तुल्य है। यह पुण्यरूपी उपवन चित्तरूपी भूमिमें उगता है, इसमें कर्मप्रकृतिरूपी वृक्षोंकी पंक्तियाँ होती हैं । उपवन दिशाचक्रको अपने फलभारसे घेरे होता है, पुण्य भी भविष्यके मनोरथोंसे पूरित होता है। उपवन स्वच्छ जलके समूहके कारण रसभारसे भरपूर होता है, पुण्य भी निर्मल परिणामरूपी जलके समूहसे होनेवाले अनुभागरूप रसभारसे भरपूर रहता है अर्थात् जितने ही अधिक मन्द कषायको लिये हुए निर्मल परिणाम होते हैं उतना ही अधिक शुभ प्रकृतियोंमें फलदानकी शक्ति प्रचुर होती है। उपवन नाना प्रकारके फूलोंके समूहसे युक्त होता है; पुण्य भी नाना प्रकारकी फलदान शक्तिसे युक्त होता है। चूंकि फूलसे ही फल लगते हैं अतः शक्तिको फूलोंकी उपमा दी है। उपवनमें सदा पथिक जन आते रहते हैं। पुण्य भी साधुजनोंके द्वारा सेवनीय होता है। यहाँ साधुजनसे धर्म, अर्थ और कामका सेवन करनेवाले लेना चाहिए।
- इस तरह पुण्यरूपी उपवनमें दान तप आदि करनेवाले पुण्यशालियोंके द्वारा प्रार्थित पदार्थ प्रचुर रूपमें फलते हैं ॥३०॥
आगे कहते हैं कि पुण्यसे बहुत सहभावी इच्छित पदार्थ फलरूपमें प्राप्त होते हैं- माता-पितासे आये हुए और शिक्षासे प्राप्त विक्रम, कला, सौन्दर्य, आचार आदि गुणोंसे, जिनकी चर्चा पारस्परिक गोष्ठीमें भी आनन्ददायक होती है और जिनमेंसे मनुष्य एक एक गुणको भी प्राप्त करनेके इच्छुक रहते हैं, सबकी तो बात ही क्या है ? ऐसे गणोंसे युक्त पुण्यशाली मनुष्य सब ऋतुओंमें सुखदायक महलके ऊपर कान्ताके नयनोंके द्वारा अनु
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