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धर्मामृत (अनगार )
अनुगुणः कार्यं प्रत्युपकारी । व्यवसाय: - क्रियां प्रत्युद्यमः । सुसाहसः - यत्र नाहमित्यध्यवसायस्तत्साहसं स्वाभ्यं यवास्ति ( सोऽयं यत्रास्ति ) । उद्यत् - आरोहत् प्रकर्षम् । तथा चोक्तम्यति बुद्धिर्व्यवसायो हीनकालमारभते ।
धैर्यं व्यूढमहाभरमुत्साहः साधयत्यर्थम् ॥ [
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ऋते विना ||२७||
ननु यदीष्टसिद्धी पुण्यस्य स्वातन्त्र्यं तत्किमेतत् स्वकर्तुस्तत्र क्रियामपेक्षते इति प्रश्ने सति प्रत्यक्षमुत्तरयति -
मनस्विनामीप्सितवस्तुलाभाद्रम्योऽभिमानः सुतरामितीव । पुण्यं सुहृत्पौरुषदुर्मदानां क्रियाः करोतीष्ट फलाप्तिदृप्ताः ॥२८॥ मनस्विनां मानिनाम् ॥२८॥
विशिष्टा आयुरादयोऽपि पुण्योदयनिमित्ता एवेत्यावेदयतिआयुः श्रेयोनुबन्धि प्रचुरमुरुगुणं वज्रसारः शरीरं,
श्रीरत्यागप्रायभोगा सततमुदयनी धीः परार्ध्या श्रुताढचा । गोरादेया सदस्या व्यवहृतिरपथोन्माथिनी सद्भिरर्थ्या,
स्वाम्यं प्रत्यथिकाम्यं प्रणयिपरवशं प्राणिनां पुण्यपाकात् ॥ २९ ॥
पुण्यका उदय होने पर ही ये सब प्राप्त होते हैं और पुण्यके उदयमें ही कार्यकारी होते हैं ॥२७॥
यदि इष्टकी सिद्धि में पुण्य कर्म स्वतन्त्र है अर्थात् यदि पुण्यके ही प्रतापसे कार्यसिद्धि होती है तो पुण्य अपने कर्ताके क्रियाकी अपेक्षा क्यों करता है अर्थात् बिना कुछ किये पुण्यसे इष्टसिद्धि क्यों नहीं होती इस प्रश्नका उत्तर उत्प्रेक्षापूर्वक देते हैं
अभिमानी पुरुषों को इच्छित वस्तुका लाभ हो जाने पर अत्यन्त मनोरम अभिमान हुआ करता है । मानो इसीलिए छलरहित उपकारक पुण्य अपने पौरुषका मिथ्या अहंकार करनेवालोंकी क्रियाओंको - कार्योंको इष्टफलकी प्राप्तिके अभिमानरससे रंजित कर देता है । अर्थात् इष्टफलकी प्राप्ति तो पुण्यके प्रतापसे होती है किन्तु मनुष्य मिथ्या अहंकार करते हैं कि हमने अपने पौरुषसे प्राप्ति की है ||२८||
आगे कहते हैं कि विशिष्ट आयु आदि भी पुण्योदयके निमित्तसे ही होती है
पुण्य कर्मके उदयसे प्राणियोंको सतत कल्याणकारी उत्कृष्ट आयु प्राप्त होती है, सौरूप्य आदि गुणोंसे युक्त तथा वज्रकी तरह अभेद्य शरीर प्राप्त होता है, जीवन पर्यन्त दिनोंदिन बढ़नेवाली तथा प्रायः करके अर्थीजनोंके भोगमें आनेवाली लक्ष्मी प्राप्त होती है, सेवा आदि गुणोंसे सम्पन्न होने के कारण उत्कृष्ट तथा शास्त्रज्ञानसे समृद्ध बुद्धि प्राप्त होती है, सभाके योग्य और सबके द्वारा आदरणीय वाणी प्राप्त होती है, साधुजनोंके द्वारा अभिलषणीय तथा दूसरोंको कुमार्ग से बचानेवाला हितमें प्रवृत्ति और अहितसे निवृत्तिरूप व्यवहार प्राप्त होता है, तथा शत्रु भी जिसकी अभिलाषा करते हैं कि हम भी ऐसे हों, ऐसा प्रभुत्व प्राप्त होता है जो केवल प्रियजनों की ही परवशता स्वीकार करता है । ये सब पुण्यकर्मके उदयके निमित्तसे प्राप्त होते हैं ||२९||
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