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________________ ६ १२ ६९२ धर्मामृत ( अनगार) प्रतिक्रम-व्रतारोपणप्रतिक्रमणम् । तस्मिन्नेव दिने सूरिः कुर्यात् । सुलग्नाद्यभावे कतिपयदिवसव्यवधानेऽपि ॥८५॥ अथान्यद्यतनलोचकालक्रियानुष्ठान निर्णयार्थमाह लोचो द्वित्रिचतुर्मासैर्वरो मध्योऽधमः क्रमात् । लघप्राग्भक्तिभिः कार्यः सोपवासप्रतिक्रमः ॥८६॥ लघुप्राग्भक्तिभिः- लघुसिद्धयोगिभक्तिभ्यां प्रतिष्ठाप्यः लघुसिद्धभक्त्या निष्ठाप्यः इत्यर्थः । उक्तं च 'लोचो द्वित्रिचतुर्मासैः सोपवासप्रतिक्रमः। लघुसिद्धर्षिभक्त्यान्यः क्षम्यते सिद्धभक्तितः ॥' [ ]॥८६॥ अथादिमान्तिमतीर्थकरावेव व्रतादिभेदेन सामायिकमुपदिशतःस्म नाजितादयो द्वाविंशतिरिति सहेतुकं व्याचष्टे दुःशोधमृजुजडैरिति पुरुरिव वीरोऽदिशद्वतादिभिदा । दुष्पालं वक्रजडेरिति साम्यं नापरे सुपटु शिष्याः॥८७।। उसे सबसे प्रथम परिवारसे पूछना चाहिए और जब माता-पिता, पत्नी-पुत्र आदि मुक्त कर दें तो किसी गुणसम्पन्न विशिष्ट कुलरूप और वयसे युक्त आचार्यके पास जाकर प्रार्थना करे। उनकी अनुज्ञा मिलनेपर वह विधिपूर्वक दीक्षा लेकर नग्न दिगम्बर हो जाता है। वह अन्तरंग और बाह्यलिंग धारण करके गुरुको नमस्कार करके उनसे सर्वसावध योगके त्यागरूप एक महाव्रतको जानकर अट्ठाईस मूलगुणपूर्वक सामायिक संयमको धारण करके श्रमण बन जाता है। श्वे. ज्ञाताधर्मकथा नामक अंगमें दीक्षाविधिका विस्तारसे वर्णन मिलता है ॥८४-८५।। मुनिदीक्षाके समय तो केशलोंच किया ही जाता है। उसके बाद केशलोचका काल और क्रियाविधि कहते हैं केशलोंचके तीन प्रकार हैं-उत्कृष्ट, मध्यम और अधम । जो दो माहके बाद किया जाता है वह उत्कृष्ट है। तीन मासके बाद किया जाये तो मध्यम और चार मासके बाद किया जाये तो अधम है। यह अवश्य करना चाहिए। इसका प्रारम्भ लघु सिद्धभक्ति और लघु योगिभक्ति पूर्वक होता है और समाप्तिपर लघु सिद्धभक्ति की जाती है। तथा उस दिन उपवास और केशलोंच सम्बन्धी क्रियाका प्रतिक्रमण भी करना चाहिए ॥८६॥ विशेषार्थ-श्वेताम्बर साहित्यमें भी लोंचके सम्बन्धमें ऐसा ही विधान पाया जाता है ॥८६॥ आगे कहते हैं कि प्रथम और अन्तिम तीर्थकरने ही व्रतादिके भेदसे सामायिक का उपदेश दिया, अजितनाथ आदि बाईस तीर्थंकरोंने नहीं तथा उसका कारण भी कहते हैं भगवान् आदिनाथके शिष्य ऋजुजड़ थे अर्थात् सरल होनेपर भी अज्ञानी थे अतः वे भेद किये बिना साम्यभावरूप सामायिक चारित्रको नहीं समझ सकते थे। इसलिए भगवान् आदिनाथने भेदरूप सामायिक संयमका उपदेश दिया। भगवान महावीरके शिष्य वक्रजड़ थे, अज्ञानी होनेके साथ हृदयके सरल नहीं थे अतः भगवान् महावीरने भी भगवान् आदिनाथकी तरह ही भेद सहित सामायिक चारित्रका उपदेश किया। किन्तु मध्यके बाईस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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