________________
नवम अध्याय
प्रतिमायोगिनः-दिनं यावदभिसूर्य कायोत्सर्गावस्थायिनः । सर्वेऽपि-श्रमणाः । उक्तं च
'प्रतिमायोगिनः साधोः सिद्धानागारशान्तिभिः ।
विधीयते क्रियाकाण्डं सर्वसंधेरैः सुभक्तितः॥ ॥८२॥ अथ दीक्षाग्रहणलुश्चनक्रियाविधिमाह
सिद्धयोगिबृहद्भक्तिपूर्वकं लिङ्गमर्प्यताम् ।
लुच्चाख्यानाग्न्यपिच्छात्म क्षम्यतां सिद्धभक्तितः ॥८३॥ अर्ग्यतां-आरोप्यताम् । आख्या-नामकरणम् । क्षम्यतां-लिङ्गार्पणविधानं समाप्यताम् ॥८३॥ अथ दीक्षादानोत्तरकर्तव्यं पद्ययुगलेनाह
व्रतसमितीन्द्रियरोधाः पञ्च पृथक् क्षितिशयो रदाघर्षः। स्थितिसकृदशने लुच्चावश्यकषटके विचेलताऽस्नानम् ॥ इत्यष्टाविंशति मूलगुणान् निक्षिप्य दीक्षिते ।
संक्षेपेण सशीलादीन् गणी कुर्यात् प्रतिक्रमम् ॥८४-८५॥ पञ्च पृथक्-पञ्च पञ्चेत्यर्थः । रदाघर्षः-अदन्तधावनम् ।
स्थितिसकृदशने-उद्भोजित्वमेकभक्तं चेत्यर्थः। अस्नानं-जलावगाहनोद्वर्तनाद्यभावः ॥८४॥ आदरके साथ सिद्धभक्ति, योगिभक्ति और शान्तिभक्तिपूर्वक उनकी क्रियाविधि करनी चाहिए ॥८॥
आगे दीक्षाग्रहण और केशलोंचकी क्रियाविधि कहते हैं
केशलोंच, नामकरण, नग्नता और पीछी ये ही जिनलिंगके रूप हैं । अर्थात् मुनिदीक्षा धारण करते समय केशलोंच करना होता है, वस्त्रका सर्वथा त्याग करना होता है, नवीन नाम रखा जाता है तथा पीछी-कमण्डलु लिया जाता है। ये सब जिनलिंग हैं। ये लिंग बृहत् सिद्ध भक्ति और बृहत् योगिभक्तिपूर्वक देना चाहिए और सिद्धभक्तिके साथ लिंगदानके इस विधानको समाप्त करना चाहिये ।।८।।
दीक्षादानके बादकी क्रिया दो गाथाओंसे कहते हैं
पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँचों इन्द्रियोंको वशमें करना, पृथ्वीपर सोना, दन्तधावन न करना, खड़े होकर भोजन करना तथा दिनमें एक ही बार भोजन करना, केशलोंच, छह आवश्यक, वस्त्र मात्रका त्याग और स्नान न करना ये अट्ठाईस मूलगुण हैं। तथा चौरासी लाखगुण और अठारह हजार शील हैं। दीक्षा देनेवाले आचार्यको दीक्षित साधुमें संक्षेपसे इन उत्तरगुणों और शीलोंके साथ अट्ठाईस मूलगुणोंकी स्थापना करनेके बाद प्रतिक्रमण करना चाहिए ।।८४-८५॥
विशेषार्थ-साधु जीवन बड़ा पवित्र जीवन होता है। उसके इस मानदण्डको बनाये रखनेके लिए साधु जीवनमें प्रवेश करनेवालोंसे कुछ वैशिट्यकी अपेक्षा की जाती है। इसलिए कुछ व्यक्तियोंको साधु बननेके अधिकारसे वंचित रखा गया है-बाल, वृद्ध, नपुंसक, रोगी, अंगहीन, डरपोक, बुद्धिहीन, डाकू, राजशत्रु, पागल, अन्ध, दास, धूर्त, मूढ़, कर्जदार, भागा हुआ, गर्भिणी, प्रसूता । बौद्ध महावग्गमें भी सैनिक, रोगी, चोर, जेल तोड़कर भागनेवाला, डाकू, कर्जदार, दास और तपे लोहेसे दागे हुए व्यक्तिको संघमें सम्मिलित करनेका अनधिकारी कहा है। प्रवचनसारके चारित्राधिकारमें कहा है कि यदि दुःखसे छूटना चाहते हो तो मुनिधर्मको स्वीकार करो। जो मुनिधर्म स्वीकार करना चाहता है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org