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धर्मामृत ( अनगार ) __ अथवा दुःखस्याभावानिदुःखं ( दुःखानामभावो निर्दुःखं ) सुखं चेति ग्राह्यम् । चशब्दश्चात्र लुप्तनिर्दिष्टो द्रष्टव्यः । भव्याः-हे अनन्तज्ञानाद्याविर्भावयोग्या जीवाः । किंच
मंगल-निमित्त-हेतु-प्रमाण-नामानि शास्त्रकतश्च ।
व्याकृत्य षडपि पश्चाद् व्याचष्टां शास्त्रमाचार्यः ॥ [ इति मङ्गलादिषट्कमिह प्रदश्यते-तत्र. मलं पापं गालयति मङ्गंवा पुण्यं लाति ददातीति मङ्गलम् । ६ परमार्थतः सिद्धादिगणस्तवनमक्तमेव । शाब्द त मङ्गलमथेति प्रतिनिर्दिष्टम । यमदृिश्य शास्त्रमभिधीयते - तन्निमित्तम् । तच्चेह 'भव्याः' इति निर्दिष्टम् । हेतुः प्रयोजनम् । तच्चेह सम्यग धर्मस्वरूपादिजननलक्षणं
'दिशामीति शृणुत' इति च पदद्वयेन सूचितं लक्ष्यते । येन हि क्रियायां प्रयुज्यते तत्प्रयोजनम् । शास्त्रश्रवणादिक्रियायां च ज्ञानेन प्रयुज्यत इति सम्यग्धर्मस्वरूपज्ञानमेवास्य शास्त्रस्य मुख्य प्रयोजनम् । आनुषङ्गिकं धर्मसामग्र्यादि ज्ञानमपि । भवति चात्र श्लोकः--
'शास्त्रं लक्ष्मविकल्पास्तपायः साधकास्तथा।
सहायाः फलमित्याह दृगाद्याराधनाविधेः ॥ [ ] है कि 'जो सुख इन्द्रियोंसे प्राप्त होता है वह पराधीन है, बाधासहित है, असातावेदनीयका उदय आ जानेपर विच्छिन्न हो जाता है, उसके भोगनेसे राग-द्वेष होता है अतः नवीन कर्मबन्धका कारण है तथा घटता-बढ़ता होनेसे अस्थिर है, अतः दुख रूप ही है।" अतः दुखोंसे रहित सुखके इच्छुक भव्य जीव ही इस शास्त्रको सुननेके अधिकारी हैं ऐसा ग्रन्थकार का अभिप्राय है।
ऐसी प्रसिद्धि है कि 'मंगल, निमित्त, हेतु, प्रमाण, नाम और शास्त्रकर्ता-इन छहका कथन करनेके पश्चात् आचार्यको शास्त्रका कथन करना चाहिए। अतः यहाँ इन छहोंका कथन किया जाता है। 'मअर्थात् मलका–पापका जो गालन करता है-नाश करता है या मंग अर्थात् पुण्यको लाता है उसे मंगल कहते हैं। वह मंगल प्रारम्भ किये गये इच्छित कार्यकी निर्विघ्न परिसमाप्तिके लिए किया जाता है। मंगलके दो प्रकार हैं-मुख्य और गौण ।तथा मुख्य मंगलके भी दो प्रकार हैं-एक अर्थरूप और दूसरा शब्दरूप । उनमें से अर्थरूप मुख्य मंगल भगवान् सिद्धपरमेष्टी आदिके गुणोंके स्मरणादि रूपमें पहले ही किया गया है। उससे प्रारम्भ करनेके लिए इष्ट शास्त्रकी सिद्धिमें निमित्त अधर्मविशेषका विनाश और धर्मविशेषका स्वीकार सम्पन्न होता है । शब्दरूप मुख्य मंगल अनन्तर ही श्लोकके आदिमें 'अथ' शब्दका उच्चारण करके किया है क्योंकि 'अथ' शब्द भी मंगलकारक प्रसिद्ध है। कहा भी है'शास्त्रके आदिमें तीन लोकोंके स्वामीको नमस्कार करना अथवा विशिष्ट शब्दोंको स्मरण करना मंगल माना गया है।'
. सम्पूर्ण कलश, दही, अक्षत, सफेद फूलका उपहार आदि तो मुख्य मंगलकी प्राप्तिका उपाय होनेसे अमुख्य मंगल कहे जाते हैं। प्रतीत होता है कि ग्रन्थकारने इस ग्रन्थके आरम्भमें उक्त अमुख्य मंगलको भी किया है उनके बिना शास्त्रकी सिद्धि सम्भव नहीं है। जिसके उद्देश्यसे शास्त्रकी रचना की जाती है वह निमित्त होता है। 'भव्याः' रूपसे यहाँ उसका कथन किया ही है क्योंकि उन्हींके लिए यह शास्त्र रचा जाता है।
१. 'त्रैलोक्येशनमस्कार लक्षणं मङ्गलं मतम् ।
विशिष्टभूतशब्दानां शास्त्रादावथवा स्मृतिः ॥'
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