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प्रथम अध्याय
अथ धर्मामृतं पद्यद्विसहस्र्या दिशाम्यहम् ।
निर्दुःखं सुखमिच्छन्तो भव्याः शृणुत धीधनाः ॥ ६ ॥
अथ—मङ्गले अधिकारे आनन्तर्ये वा । धर्मामृतं - धर्मो वक्ष्यमाणलक्षणः योऽमृतमिवोपयोक्तृणामजरामरत्व हेतुत्वात् । तदभिधेयमनेनेतीदं शास्त्रं धर्मामृतमिति व्यपदिश्यते । श्रूयन्ते चाभिधेयव्यपदेशेन शास्त्रं व्यपदिशन्तः तत्पूर्वकवयः । यथा तत्त्वार्थवृत्तिर्यशोधरचरितं च । भद्ररुद्रटोऽपि तथैवाह - 'काव्यालङ्कारोऽयं ग्रन्थः क्रियते तथायुक्ति' इति । पद्यं - परिमिताक्षरमात्रा पिण्डः पादः, तन्निबद्धं वाङ्मयं वृत्तश्लोकार्यारूपम् । निर्दुःखं सुखं—-नैश्रेयसं शर्म न सांसारिकम्, संसारे हि दुःखानुषक्तमेव सुखम् । तदुक्तम्— 'सपरं बाधासहिदं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं ।
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जं इंदिएहि लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा ॥' [ प्रव. ११७६ ]
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ग्रन्थकार ग्रन्थका प्रमाण और ग्रन्थमें कहे जानेवाले विषयके बहानेसे ग्रन्थका नाम बतलाते हुए प्रकृत ग्रन्थको रचनेकी प्रतिज्ञा करते हैं
इसके अनन्तर मैं दो हजार पद्योंसे धर्मामृत ग्रन्थको कहता हूँ । दुःखसे रहित सुखके अभिलाषी बुद्धिशाली भव्य उसे सुनें ||६||
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विशेषार्थ — इस श्लोक के प्रारम्भ में आये 'अर्थ' शब्दका अर्थ मंगल है । कहा है'सिद्धि, बुद्धि, जय, वृद्धि, राज्यपुष्टि, तथा ओंकार, अथ शब्द और नान्दी ये मंगलवाचक हैं ।' 'अथ' शब्दका अर्थ 'अधिकार' है । यहाँसे शास्त्रका अधिकार प्रारम्भ होता है । 'अथ' शब्दका 'अनन्तर' अर्थ भी है । 'निबद्ध मुख्य मंगल करनेके अनन्तर' ऐसा उसका अर्थ होता है | धवलाकार वीरसेन स्वामीने धवलाके प्रारम्भमें मंगलके दो भेद किये हैं - निबद्ध और अनिबद्ध | ग्रन्थ के आदिमें ग्रन्थकारके द्वारा जो इष्ट देवता नमस्कार निबद्ध कर दिया जाता है— श्लोकादिके रूपमें लिख दिया जाता है उसे निबद्ध मंगल कहते हैं । जैसे इस ग्रन्थके आदिमें ग्रन्थकारने सिद्ध परमेष्ठी आदिका स्तवन निबद्ध कर दिया है अतः यह निबद्धमंगल है । धर्मका लक्षण पहले कहा है । वह धर्म अमृतके तुल्य होता है क्योंकि जो उसका आचरण करते हैं वे अजर-अमर पदको प्राप्त करते हैं । इस शास्त्र में उसीका कथन है इसलिए इस शास्त्रको धर्मामृत नाम दिया गया है। पूर्व आचार्यों और कवियोंने भी शास्त्र में प्रतिपादित वस्तुतत्त्वके कथन द्वारा शास्त्रका नाम कहा है ऐसा सुना जाता है । जैसे तत्त्वार्थवृत्ति या यशोधरचरित । रुद्रट भट्टने भी ऐसा ही कहा है- "यह काव्यालंकार ग्रन्थ युक्ति अनुसार करता हूँ ।" परिमित अक्षर और मात्राओंके समूहको पाद कहते हैं । पादोंके द्वारा रचित छन्द, श्लोक या आर्यारूप वाङ्मयको पद्य कहते हैं । इस धर्मामृत ग्रन्थको दो हजार पद्योंमें रचनेका संकल्प ग्रन्थकारने किया है । वे भव्यजीवोंसे उसको श्रवण करनेका अनुरोध करते हैं । जिन जीवों में अनन्त ज्ञानादिको प्रकट करनेकी योग्यता होती है उन्हें भव्य कहते हैं । उन भव्योंको ग्रन्थकारने 'धीधनाः' कहा है-धी अर्थात् अष्टगुणसहित' बुद्धि ही जिनका धन है जो उसे ही अति पसन्द करते हैं । इस शास्त्रको श्रवण करनेका लाभ बतलाते हुए वह कहते हैं—यदि दुःखोंसे रहित अनाकुलतारूप मोक्ष सुखको चाहते हो तो इस शास्त्रको सुनो। सांसारिक सुख तो दुःखोंसे रिला मिला होता है । आचार्य कुन्दकुन्दने प्रवचनसारमें कहा १. सिद्धिर्बुद्धिर्जयो वृद्धी राज्यपुष्टी तथैव च । ओंकारश्चाथशब्दश्च नान्दी मङ्गलवाचिनः ॥'
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