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________________ ६२८ धमामृत ( अनगार) अथ प्रणामभेदनिर्णयार्थ श्लोकद्वयमाह योगैः प्रणामस्त्रेधार्हज्ज्ञानादेः कीर्तनास्त्रिभिः। कं करौ ककरं जानुकरं ककरजानु च ॥१४॥ नम्रमेकद्वित्रिचतुःपञ्चाङ्गः कायिकः क्रमात् । प्रणामः' पञ्चधावाचि यथास्थानं क्रियते सः॥१५॥ कं-मस्तकम् । नम्रमेकाङ्ग इत्यादि । योश्चं (?) ककरं-कं च करी चेति द्वन्द्वः ।।९४|| सः । उक्तं च 'मनसा वचसा तन्वा कुरुते कीर्तनं मुनिः । ज्ञानादीनां जिनेन्द्रस्य प्रणामस्त्रिविधो मतः ॥ [ वावधी मतः ॥ [ ] एकाङ्गो नमने मूर्नो द्वयङ्गः स्यात् करयोरपि । त्र्यङ्गः करशिरोनामे प्रणामः कथितो जिनैः ॥ [ चौथा सिर है। इस प्रकार एक क्रियाकर्म चतुःशिर होता है। अथवा सभी क्रियाकर्म चतुःशिर अर्थात् चतुःप्रधात होता है क्योंकि अरहन्त, सिद्ध, साधु और धर्मको प्रधान करके सब क्रियाकर्मों की प्रवृत्ति देखी जाती है। सामायिक और त्थोस्मामि दण्डकके आदि और अन्तमें मन-वचन-कायकी विशुद्धि परावर्तनके वार बारह होते हैं। इसलिए एक क्रियाकर्मको बारह आवर्तवाला कहा है। इस सबका नाम क्रियाकर्म है। स्वामी समन्तभद्रने उक्त कथनोंको ही दृष्टि में रखकर सामायिक प्रतिमाका स्वरूप कहा है-उसमें भी बारह आवर्त, चतुःशिर, यथाजात, त्रिशुद्धपद तो समान है । धवलामें तिक्खुत्तोका एक अर्थ दिनमें तीन बार किया है। यहाँ भी 'त्रिसन्ध्यमभिवन्दी' कहा है। केवल 'द्विनिषिद्यः' पद ऐसा है जो उक्त दोनों सूत्रोंमें नहीं है। रत्नकरण्डके टीकाकार प्रभाचन्द्रने उसका अर्थ किया है-दो निषद्याउपवेशन है जिसमें, अर्थात् देववन्दना करनेवालेको प्रारम्भमे और अन्त में बैठकर प्रणाम करना चाहिए। इसीका मतभेदके रूपमें उल्लेख ग्रन्थकार आशाधरजीने ऊपर किया है। षट्खण्डागमसूत्रमें भी इस दृष्टिसे भिन्न मत है । उसमें 'तियोणदं' अर्थात् तीनवार अवनमन कहा है। अवनमनका अर्थ है भूमिस्पर्श । निषद्याका भी अभिप्राय उसीसे है। इस तरह क्रियाकर्मकी विधिमें मामूली-सा मतभेद है ॥९३॥ आगे दो श्लोकोंके द्वारा प्रणामके भेद कहते हैं मन, वचन और कायकी अपेक्षा प्रणामके तीन भेद हैं, क्योंकि अर्हन्त सिद्ध आदिके ज्ञानादि गुणों का कीर्तन मन वचन काय तीनोंके द्वारा किया जाता है। उनमें-से शारीरिक ' प्रणामके पाँच प्रकार हैं-मस्तकका नम्र होना एकांग प्रणाम है। दोनों हाथोंका नम्र होना दोअंग प्रणाम है। दोनों हाथोंका मस्तकके साथ नम्र होना तीन अंगी प्रणाम है। दोनों हाथों १. 'एकद्वित्रिचतुःपञ्चदेहांशप्रतेर्मतः । प्रणामः पञ्चधा देवैः पादानतनरामरैः। एकाङ्गः शिरसो नामे सदयङ्गः करयोर्द्वयोः । त्रयाणां मर्द्धहस्तानां सत्र्यङ्गो नमने मतः॥ चतुर्णां करजानूनां नमने चतुरङ्गकः । करमस्तकजानूनां पञ्चाङ्गः पञ्चक्ष (१) नते ॥' -अमित. श्रा. ८.६२-६४ । २. 'चतुरावर्तत्रितयश्चतुःप्रणामः स्थितो यथाजातः । सामयिको द्विनिषिद्य स्त्रियोगशद्धस्त्रिसंध्यमभिवन्दी ॥-रत्नकरण्डश्रा., १३९ श्लो.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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