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________________ अष्टम अध्याय द्वे साम्यस्य स्तुतेश्चादौ शरीरनमनान्नती। वन्दनाद्यन्तयोः कैश्चिन्निविश्य नमनान्मते ॥१३॥ शरीरनमनात्-पञ्चाङ्गप्रणमनात् भूमिस्पर्शादित्यर्थः । कैश्चित-स्वामिसमन्तभद्रादिभिः। मते द्वे नतो इष्टे । यथास्तत्रभवन्तः श्रीमत्प्रभेन्दुदेवपादा रत्नकरण्डकटीकायां चतुरावर्तस्त्रितय इत्यादिसूत्रे 'द्विनिषद्य' इत्यस्य ब्याख्याने देववन्दनां कुर्वता हि प्रारम्भे समाप्ती चोपविश्य प्रणामः कर्तव्य इति ॥९३।। _सामायिक दण्डक और चतुर्विंशतिस्तवके आदिमें पंचांग नमस्कारपूर्वक दो नमस्कार करना चाहिए। किन्तु स्वामी समन्तभद्र आदिने वन्दनाके आदि और अन्तमें नमस्कार करनेसे दो नति मानी हैं ।।९३॥ विशेषार्थ-मूलाचारमें कहा है-एक कृतिकर्ममें दो नति, यथाजात, बारह आवर्त, चार शिर और तीन शुद्धियाँ होती हैं। इन सबका स्पष्टीकरण पहले किया गया है। श्वेताम्बर आगममें भी दो नति, एक यथाजात, बारह आवर्त, चार शिर, तीन गुप्तिके अतिरिक्त दो प्रवेश और एक निष्क्रमण इस तरह सब २५ आवश्यक कृतिकर्ममें बतलाये हैं। यह गुरुवन्दनाके क्रममें बतलाये गये हैं। षट्खण्डागमके वर्गणा खण्डमें भी क्रियाकर्मके नामसे आता है-'तमादाहीणं पदाहिणं तिक्खुत्तं तियोणदं चदुसिरं वारसावत्तं तं सव्वं किरियाकम्मं णाम"-पु. १३, पृ. ८८ । धवलामें जो इसकी व्याख्या दी है उसका आवश्यक अनुवाद दिया जाता है-आत्माधीन होना, प्रदक्षिणा करना, तीन बार अवनति, चार शिर, बारह आवर्त ये सब क्रियाकर्म हैं। आत्माधीन होना आदिके भेदसे क्रियाकर्म छह प्रकारका है। उनमें-से क्रियाकर्म करते समय आत्माधीन होना पराधीन न होना आत्माधीन है। वन्दना करते समय गुरु, जिन, जिनालयकी प्रदक्षिणा करके नमस्कार करना प्रदक्षिणा है। प्रदक्षिणा और नमस्कार आदिका तीन बार करना विकृत्वा है। अथवा एक ही दिन में जिन, गुरु और ऋषियोंकी वन्दना तीन बार की जाती है इसलिए विकृत्वा कहा है। 'ओणद'का अर्थ अवनमन या भूमिमें बैठना है। यह तीन बार किया जाता है इसलिए तीन बार अवनमन कहा है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-शुद्धमन होकर, पैर धोकर, और जिनेन्द्र के दर्शनसे उत्पन्न हुए हर्षसे पुलकित वदन होकर जो जिनदेवके आगे बैठना यह प्रथम अवनमन है। जो उठकर जिनेन्द्र आदिकी विनति करके बैठना यह दूसरा अवनमन है। फिर उठकर सामायिक दण्डकके द्वारा आत्मशुद्धिपूर्वक कषायसहित शरीरका त्याग करके, जिनेन्द्रदेवके अनन्त गुणोंका ध्यान करके, चौबीस तीर्थंकरोंकी वन्दना करके, फिर जिन-जिनालय और गुरुओंकी स्तुति करके भूमिमें बैठना यह तीसरा अवनमन है। इस प्रकार एक-एक क्रियाकर्ममें तीन ही अवनमन होते हैं। सब क्रियाकर्म चतुःशिर होता है। उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-सामायिकके आदिमें जिनेन्द्रदेवको सिर नमाना एक सिर है। उसीके अन्तमें सिर नवाना दूसरा सिर है। त्थोस्सामिदण्डकके आदिमें सिर नवाना तीसरा सिर है। उसीके अन्त में सिर नवाना १. 'दुओ णदं जहाजादं वारसावत्तमेव य । चदुस्सिरं तिसुद्धं च किदियम्म पउंजदे ॥'-७।१०४ । 'दुओ णयं जहाजायं किइकम्मं वारसावयं । चउस्सिरं तिगुनं च दुपवेसं एगनिक्खमणं ।'-बृहत्कल्पसूत्र ३१४४७० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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