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धर्मामृत ( अनगार) अथ वन्दनायां स्थानविशेषनिर्णयार्थमाह
स्थीयते येन तत्स्थानं वन्दनायां द्विधा मतम् ।
उद्धीभावो निषद्या च तत्प्रयोज्यं यथाबलम् ॥८४॥ निषद्या-उपवेशनम् । उक्तं च
'स्थीयते येन तत्स्थानं द्विप्रकारमुदाहृतम् । वन्दना क्रियते यस्मादुद्भीभूयोपविश्य वा ॥ [
1॥८४॥ अथ कृतिकर्मयोग्यं मुद्राचतुष्टयं व्याचिख्यासुजिनमुद्रायोगमुद्रयोलक्षणमुन्मुद्रयति
मुद्राश्चतस्रो व्युत्सर्गस्थिति नीह यौगिकी।
न्यस्तं पद्मासनाद्यङ्के पाण्योरुत्तानयोर्द्वयम् ॥८५॥ व्युत्सर्गस्थिति नी । प्रलम्बितभुजेत्यादिना प्रागुक्ता जिनमुद्रा। उक्तं च
'जिनमुद्रान्तरं कृत्वा पादयोश्चतुरङ्गुलम् ।
ऊध्वंजानोरवस्थानं प्रलम्बितभुजद्वयम् ॥' [ अमि. श्रा. ८.५३ ] योगिकी-योगमुद्रा । उक्तं च
'जिनाः पद्मासनादीनामङ्कमध्ये निवेशनम् ।
उत्तानकरयुग्मस्य योगमुद्रां बभाषिरे ॥' [ अमि. श्रा. ८५५ ] ॥८५॥ अथ वन्दनामुद्रां मुक्ताशुक्तिमुद्रां च निर्दिशति
स्थितस्याध्युदरं न्यस्य कूर्परौ मुकुलीकृतौ। करौ स्याद् वन्दनामुद्रा मुक्ताशुक्तिर्युतागुली ॥८६॥
दरं-उदरस्योपरि । युताङ्गुली। मुकुलीकृतौ करावेव संलग्नाङ्गुलिको २१ स्थितस्य पूर्ववत् मुक्ताशुक्तिर्नाम मुद्रा । उक्तं च
सरल होता है । या बायें पैरके ऊपर दायाँ पैर रखकर बैठना सुखासन है जैसा सोमदेवने कहा है ।।८।।
आगे वन्दनाके स्थान-विशेषका निर्णय करते हैं
वन्दना करनेवाला जिस रूपसे स्थिर रहता है उसे स्थान कहते हैं। वे स्थान दो माने गये हैं। एक खड़े होना, दूसरा बैठना। वन्दना करनेवालेको उनमें से अपनी शक्तिके अनुसार कोई एक स्थानका उपयोग करना चाहिए ।।८४॥
कृतिकर्मके योग्य चार मुद्राएँ होती हैं। उनमें से जिनमुद्रा और योगमुद्राका लक्षण' कहते हैं
- मुद्रा चार होती हैं। उनमें से कायोत्सर्गसे खड़े होना जिनमुद्रा है । तथा पद्मासन या पर्यकासन या वीरासनसे बैठकर गोदमें दोनों हथेलियोंको ऊपरकी ओर करके स्थापित करना योगमुद्रा है ।।८५||
विशेषार्थ-कृतिकर्मके योग्य मुद्राओं में-से यहाँ दो मुद्राओंका स्वरूप कहा है। अमितगति आचार्यने भी कहा है-दोनों पैरोंके मध्यमें चार अंगुलका अन्तर रखकर तथा दोनों हाथोंको नीचेकी ओर लटकाकर खड़े होना जिनमुद्रा है ॥८५।।
आगे वन्दनामुद्रा और मुक्ताशक्तिमुद्राका स्वरूप कहते हैंखड़े होकर दोनों कोहनियोंको पेटके ऊपर रखकर तथा दोनों हाथोंको मुकुलित करना
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