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________________ अष्टम अध्याय ६२१ अन्ये वाहुः 'जङ्घाया जङ्घयाश्लिष्टे मध्यभागे प्रकीर्तितम् । पद्मासनं सुखाधायि सुसाधं सकलैर्जनैः ।। बुधैरुपयंधोभागे जङ्घयोरुभयोरपि । समस्तयोः कृते ज्ञेयं पर्यङ्कासनमासनम् ॥ ऊर्वोपरि निक्षेपे पादयोविहिते सति । वीरासनं चिरं कर्त शक्यं धोरैर्न कातरैः ॥ [ अमि. श्रा. ८।४५-४७ ] अपि च 'जङ्गाया मध्यभागे तु संश्लेषो यत्र जङ्घया। पद्मासनमिति प्रोक्तं तदासनविचक्षणः ॥ [ योगशास्त्र ४।१२९] 'स्याज्जङ्घयोरधोभागे पादोपरि कृते सति । पर्यो नाभिगोत्तानदक्षिणोत्तरपाणिकः ।। वामोऽध्रिदक्षिणोरूज़ वामोरुपरि दक्षिणः। क्रियते यत्र तद्वीरोचितं वीरासनं हितम् ॥' [ योगशास्त्र ४।१२५-१२६] ॥८३॥ ऊपर रहते हैं वह वीरासन है। और जिसमें दोनों पैरोंकी गाँठे बराबरमें रहती हैं वह सुखासन है। आचार्य अमितगतिने कहा है-समभागमें जंघासे जंघाका गाढ़ सम्बन्ध पद्मासन है। यह सुखकारक होनेसे सब लोगोंके द्वारा सरलतासे किया जा सकता है। समस्त दोनों जंघाओंको ऊपर-नीचे रखनेपर पर्यकासन होता है। दोनों पैरोंको दोनों ऊरुपर रखनेपर वीरासन होता है। इसे वीर पुरुष ही चिरकाल तक कर सकते हैं, कायर नहीं कर सकते । आचार्य हेमचन्द्र (श्वे.) ने कहा है-दोनों जंघाओंके नीचेके भागको दोनों पैरोंके ऊपर रखनेपर तथा दोनों हाथोंको नाभिके पास ऊपरको करके बायें हाथपर दाहिना हाथ रखना पर्यकासन है। जिसमें बायाँ पैर दक्षिण ऊरुके ऊपर और दाहिना पैर बायें ऊरुके ऊपर रखा जाता है उसे वीरासन कहते हैं। यह वीरोंके योग्य है। और जिसमें जंघाका दूसरी जंघाके साथ मध्य भागमें गाढ़ सम्बन्ध होता है, उसे पद्मासन कहते हैं। पं. आशाधरजीने उक्त मतोंको अपनी टीकामें 'अन्य आचार्य ऐसा कहते हैं। ऐसा लिखकर उद्धृत किया है । और अपने लक्षणोंके समर्थनमें कुछ श्लोक उद्धृत किये हैं। पं. आशाधरजीने इन्हीं तीनों लक्षणोंको एक श्लोकमें निबद्ध किया है । इनमें वीरासनके लक्षणमें तो मतभेद नहीं है। सभीने दोनों पैरोंको दोनों घुटनोंसे ऊपर जो ऊरु है उसपर रखकर बैठनेको वीरासन कहा है। शेष दोनों आसनोंके लक्षणों में मतभेद प्रतीत होता है। सोमदेवने पयकासनको ही सुखासन कहा है ऐसा प्रतीत होता है। अमितगति पद्मार सुखसाध्य बतलाते हैं। उन्होंने उसका जो लक्षण किया है वह है भी सुखसाध्य । दोनों जंघाओंको मिलाकर बैठना सरल है। कठिनता तो पैरोंको जंघाओंके ऊपर रखने में होती है। हेमचन्द्र भी पद्मासनका यही लक्षण करते हैं। आजकल जो 'जिनमूर्तियाँ देखी जाती हैं उनके आसनको पर्यकासन कहा जाता है। उनके दोनों चरण दोनों जंघाओंके ऊपर स्थित होते हैं । किन्तु यह आसन सुखासन नहीं है । दोनों जाँघोंको परस्परमें संश्लिष्ट करके बैठना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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