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धर्मामृत ( अनगार) अथ द्रव्यप्रत्याख्यानविशेषं व्यवहारोपयोगितया प्रपञ्चयन प्रत्याख्येयविशेषं प्रत्याख्यातारं च लक्षयति
सावधेतरसच्चित्ताचित्तमिश्रोपधीस्त्यजेत् ।
चतुर्धाहारमप्यादिमध्यान्तेष्वाज्ञयोत्सुकः॥६८॥ त्यजेत् । प्रत्याख्यानोक्तिरियम् । उपध्याहारी तु प्रत्याख्येयौ । अपि-अनुक्तसमुच्चये । तेन त्रिविधाहारादिरपि प्रत्याख्येयो विज्ञेयः। आदौ-प्रत्याख्यानग्रहणकाले। मध्ये-मध्यकाले। अन्ते-समाप्तौ। आज्ञयोत्सुक:-अहंदाज्ञागुरुनियोगयोरुपयुक्तो जिनमतं श्रद्दधत् । गुरूक्तेन प्रत्याचक्षाण इत्यर्थः । उक्तं च
'आज्ञाज्ञापनयोर्दक्ष आदिमध्यावसानतः । साकारमनाकारं च सुसन्तोषोऽनुपालयन् ॥ प्रत्याख्याता भवेदेषः प्रत्याख्यानं तु वर्जनम् ।
उपयोगि तथाहारः प्रत्याख्येयं तदुच्यते ॥' [ ] ॥६८॥ अथ बहुविकल्पमुपवासादिप्रत्याख्यानं मुमुक्षोः शक्त्यनतिक्रमेणावश्यकर्तव्यतयोपदिशति
विशेषार्थ-राधका अर्थ होता है संसिद्धि अर्थात् स्वात्मोपलब्धि, अतः अपराधका अर्थ होता है परतव्यका ग्रहणः क्योंकि वह स्वात्मोपलब्धिका विरोधी है। उसकी गन्धको भी जो नहीं छूता अर्थात् जिसके प्रमादका लेश भी नहीं रहता। ऐसा साधु अवश्य ही मोक्षमार्गका आराधक होता है ॥६७।।
... द्रव्य प्रत्याख्यान व्यवहार में उपयोगी होता है अतः उसका विशेष कथन करते हुए प्रत्याख्येय-छोड़ने योग्य विषयोंके विशेषके साथ प्रत्याख्याताका स्वरूप कहते हैं
___अर्हन्त देवकी आज्ञा और गुरुके नियोगमें दत्तचित्त होकर अर्थात् जिनमतके श्रद्धान पूर्वक प्रत्याख्यान ग्रहण करते समय, उसके मध्यमें तथा उसकी समाप्ति होनेपर सावद्य और निरवद्य दोनों ही प्रकारकी सचेतन, अचेतन और सचेतन अचेतन परिग्रहोंका तथा चारों प्रकारके आहारका त्याग करना चाहिए ॥६८॥
विशेषार्थ-ऊपर श्लोकमें केवल 'आज्ञा' पद है उससे अर्हन्तदेवकी आज्ञा और गुरु का नियोग दोनों लेना चाहिए। जिसमें हिंसा आदि होते हैं उसे सावद्य और जिसमें हिंसा आदि नहीं होते उसे निरवद्य कहते हैं। यहाँ परिग्रह आदिका त्याग प्रत्याख्यान है और परिग्रह भोजन वगैरह प्रत्याख्यय-त्यागने योग्य द्रव्य है। कहा है-अहन्तकी आज्ञासे, गरुके उपदेशसे और चारित्रकी श्रद्धासे जो दोषके स्वरूपको जानकर व्रतका ग्रहण करते समय उसके मध्यमें और उसकी समाप्ति पर सविकल्पक या निर्विकल्प चारित्रका पालन करता है वह दृढ़ धैर्यशील तो प्रत्याख्याता–प्रत्याख्यान करनेवाला होता है। और तपके लिए सावद्यया निरवद्य द्रव्यका त्याग या त्यागरूप परिणामका होना प्रत्याख्यान है । और सचित्त अचित्त और सचित्ताचित्त उपाधि, क्रोधादिरूप परिणाम और आहारादि प्रत्याख्येय हैं, इनका प्रत्याख्यान किया जाता है ॥६८॥
आगे उपदेश देते हैं कि मुमुक्षुको अपनी शक्तिके अनुसार अनेक प्रकारके उपवास आदि प्रत्याख्यान अवश्य करना चाहिए१. 'आणाय जाणणा विय उवजत्तो मल मज्झणिसे ।
आगारमणागारं अणुपालेतो दढधिदीओ ॥'-मूलाचार ७३१३७।
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