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यथा-
अथ भावस्तवमाह
अष्टम अध्याय
वर्ण्यन्तेऽनन्यसामान्या यत्कैवल्यादयो गुणाः । भावकैर्भावसर्वस्वदिशां भावस्तवोऽस्तु सः ॥४४॥
भावसवंस्वदिशां - जोवादिपदार्थाश्रितद्रव्यगुणपर्यायसंपदुपदेशिनाम् । भावस्तवः ।
'विवर्तैः स्वैर्द्रव्यं प्रतिसमयमुद्यद् व्ययदपि स्वरूपादुल्लोलैर्जलमिव मनागप्यविचलत् । अनेोमाहात्म्याहित नवनवी भावमखिलं प्रमिन्वानाः स्पष्टं युगपदिह नः पान्तु जिनपाः ॥' [
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एष एव भगवतां वास्तवस्तवः केवलज्ञानादिगुणानां तद्वतां चाव्यतिरेकादैक्यसंभवात् । यथाह'तं णिच्छए ण जुंजइ ण सरीरगुणा हि हुँति केवलिणो ।
वगुणे ण जो सो सच्चं केवली थुणइ ॥ ' [ समयप्रा, गा. २९] ॥४४॥
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भावस्तवको कहते हैं
भावना लीन भव्योंके द्वारा जो केवलज्ञान आदि असाधारण गुणों का वर्णन किया जाता है वह जीवादि पदार्थोंके आश्रित द्रव्य-गुण- पर्यायरूप सम्पदाका उपदेश देनेवालोंका भावस्तव है ||४४||
स स्वयंकृतो
विशेषार्थ — तीर्थंकर अपनी दिव्यध्वनिके द्वारा जीवादि पदार्थोंके स्वरूपका उपदेश करते समय द्रव्य-गुण-पर्यायका विवेचन करते हैं । वे जीवकी शुद्ध दशा और अशुद्ध दश विभेद करके शुद्ध जीवके स्वरूपका कथन करते हैं । शुद्ध जीवके असाधारण गुणोंका स्तवन भावस्तव है ।
आशाधरजीने अपनी टीकामें इसका एक स्वरचित उदाहरण दिया है जिसका भाव है— 'जैसे जल में प्रतिसमय लहरें उठती हैं और विलीन होती हैं फिर भी जल स्वभावसे निश्चल ही रहता है उसी तरह द्रव्य भी प्रतिसमय अपनी पर्यायोंसे उत्पन्न होता और नष्ट होता हुआ भी स्वभाव से रंचमात्र भी विचलित नहीं होता सदा एकरूप ही रहता है । इस प्रकार कालके प्रभावसे होनेवाले समस्त उत्तरोत्तर नये-नयेपनेको एक साथ स्पष्ट रूपसे जाननेवाले जिनदेव हमारी रक्षा करें ।'
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वास्तव में भावस्तव ही यथार्थ स्तव है क्योंकि केवलज्ञानादि गुणका शुद्धात्मा साथ अभेद है। क्षेत्र, काल, शरीर आदि तो सब बाह्य हैं ।
१. 'विवर्तेः स्वैर्द्रव्यं प्रतिसमयमुद्यद् व्ययदपि
स्वरूपादुल्लोलैर्जलमिव मनागप्यविचलत् ॥
अहो माहात्म्या हितनवनवी भावमखिलं
प्रमिन्वानाः स्पष्टं युगपदिह नः पान्तु जिनपाः ॥ ' - अनगा. धर्मा. टी. ।
आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है- शरीरादिके स्तवनसे केवलीका स्तवन निश्चय दृष्टिसे ठीक नहीं है क्योंकि शरीरके गुण केवलीके गुण नहीं हैं अतः जो केवलीके गुणोंका स्तवन करता है वही वास्तव में केवलीका स्तवन करता है ||४४ ||
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