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________________ ५८६ धर्मामृत ( अनगार) लोकोत्तमांनां-परभागप्राप्तप्रभुत्वभाक्त्वात्तीर्थकृताम् । यदाह 'तित्थयराण पहुत्तं णेहो बलदेव केसवाणं च। दुक्खं च सवत्तीणं तिण्णि वि परभागपत्ताई॥ [ ] ॥४१॥ अथ क्षेत्रस्तवमाह क्षेत्रस्तवोऽहंतां स स्यात्तत्स्वर्गावतरादिभिः । पूतस्य पूर्वनाद्रयादेयत्प्रदेशस्य वर्णनम् ॥४२॥ पुरित्यादि-पुरोऽयोध्यादयः । वनानि सिद्धार्थादीनि । अद्रयः-कैलासादयः। आदिशब्देन नद्यादिपरिग्रहः ॥४२॥ अथ कालस्तवमाह कालस्तवस्तीर्थकृतां स ज्ञेयो यदनेहसः । तद्गर्भावतरायुद्धक्रियादृप्तस्य कीर्तनम् ॥४३॥ स्पष्टम् ॥४३॥ तीर्थंकर वन्दनीय हैं। तथा इन्द्र आदि देवगणोंने जन्मकल्याणकके समय जिनको मुकुट, कुण्डल और रत्नहारसे भषित किया तथा चरणकमलोंकी स्तुति की, उत्तम वंश तथा जग लिए दीपकके तुल्य तीर्थकर जिनेन्द्र मुझे सदा शान्तिदायक होवें। दीक्षा वृक्षोंके द्वारा भगवान्की स्तुतिका उदाहरण-वेट, सप्तच्छद, शाल, सरल, प्रियंग, शिरीष, नागकेशर, साल, पाकर, श्रीवृक्ष, तेंदआ. पाटला, जामन, पी नन्दीवृक्ष, नारंगवृक्ष, आम्र, अशोक, चम्पक, वकुल, वांशिक, धव, शाल ये चौबीस तीर्थंकरोंके दीक्षावृक्ष हैं । इन वृक्षोंके नीचे उन्होंने दीक्षा धारण की थी। 'लोकोत्तम' शब्दसे तीर्थंकर ही लिये जाते हैं क्योंकि उनकी प्रभुता सर्वोत्कृष्ट होती है। कहा है-तीर्थकरोंका प्रभुत्व, बलदेव और नारायणका स्नेह और सपत्नीका दुःख ये तीनों सर्वोत्कृष्ट होते हैं। यह द्रव्यस्तवका स्वरूप है ॥४॥ आगे क्षेत्रस्तवको कहते हैं तीर्थकरोंके स्वर्गावतरण, जन्म, दीक्षा, ज्ञान और निर्वाणकल्याणकोंसे पवित्र अयोध्या आदि नगर, सिद्धार्थ आदि वन और कैलास आदि पर्वत प्रदेशका जो स्तवन है वह क्षेत्रस्तव है ॥४२॥ कालस्तवको कहते हैं तीर्थंकरोंके गर्भावतरण, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाणकल्याणकोंकी प्रशस्त क्रियाओंसे गर्वयुक्त हुए कालका वर्णन तीर्थंकरोंका कालस्तव है अर्थात् जिन समयोंमें कल्याणकी क्रियाएँ हुई उनका स्तवन कालस्तव है ॥४३॥ १. पद्मपुराण २०३६-६०। 'न्यग्रोधो मदगन्धिसर्जमुशनश्यामे शिरीषोऽर्हतामते ते किल नागसर्जजटिनः श्रीतिन्दुकः पाटलः । जम्ब्वश्वत्थकपित्थ नन्दिकविटाम्रावजुलश्चम्पको जीयासुर्वकुलोत्र वांशिकधवी शालश्च दीक्षाद्रुमाः ॥'-आशाधर प्रतिष्ठापाठ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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