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अष्टम अध्याय
अथ प्रेक्षावतां दुःसहसंसारदुःखानुभव एव रत्नत्रयानुबन्धाय स्यादित्युपदेशार्थमाहदवानलीयति न चेज्जन्मारामेऽत्र धीः सताम् ।
तह रत्नत्रयं प्राप्तं त्रातुं चेतुं यतेत कः ॥३३॥
दवानलीयति - दवाग्नाविवाचरति । जन्मारामे - जन्मसंसार आराम इव मूढात्मनां प्रीतिनिमित्तविषय बहुलत्वात् ॥३३॥
अथ साम्यस्य सकलसदाचारमूर्धाभिषिक्तत्वात् तस्यैव भावनायामात्मानमासञ्जयन्नाह - सर्वसत्त्वेषु समता सर्वेष्वाचरणेषु यत् ।
परमाचरणं प्रोक्तमतस्तामेव भावये ॥३४॥
स्पष्टम् ॥३४॥
अथैवं भावसामायिकमवश्यसेव्यतया संप्रधार्यं तदारूढमात्मानं ख्यापयन्नाह-"मैत्री मे सर्वभूतेषु वैरं मम न केनचित् ।
सर्व सावद्यविरतोऽस्मीति सामायिकं श्रयेत् ||३५||
सावद्या: - हिंसादिपातकयुक्ता मनोवाक्कायव्यापाराः । इति -- शुभेऽशुभे वा केनापीत्यादिप्रबन्धोक्तेन प्रकारेण ॥ ३५॥
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फल देता है तब उसको टालना अशक्य होता है । ऐसे दुर्वार कर्मरूपी शत्रुको नष्ट करने के लिए दुःख यक्ष्मा रोगके समान है । अतः ऐसे दुःखसे खेदखिन्न कौन होगा ||३२||
बुद्धिमान मनुष्यों के लिए संसारके दुःसह दुःखोंका अनुभव ही रत्नत्रयकी प्रीतिका कारण होता है ऐसा उपदेश देते हैं
यदि बुद्धिमानोंकी बुद्धि इस संसाररूपी उद्यानमें वैसा ही आचरण न करती जैसा जंगल की आग में घिर जानेपर करती है तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको प्राप्त करनेका, उसकी रक्षा करनेका और उसको बढ़ानेका कौन प्रयत्न करता ? ||३३||
विशेषार्थ - संसारको उद्यानकी उपमा इसलिए दी है कि उसमें मूढ़ पुरुषोंकी प्रीतिके लिए अनेक विषय रहते हैं । किन्तु विवेकी ज्ञानी उससे उसी तरह बचने के लिए प्रयत्नशील रहता है मानो वह वनमें लगी आग से घिर गया हो ||३३||
साम्यभाव समस्त सदाचारका शिरोमणि है । अतः आत्माको उसीकी भावना में लगने की प्रेरणा करते हैं
सब प्राणियों में अथवा सब द्रव्यों में साम्यभाव रखना सब आचरणोंमें उत्कृष्ट आचरण कहा है | अतः उसीको बार-बार चित्त में धारण करता हूँ ||३४|
इस प्रकार भावसामायिकको अवश्य करने योग्य निर्धारित करके उसमें आरूढ़ आत्माके भाव बतलाते हैं
समस्त प्राणियोंमें मेरा मैत्रीभाव है, किसीसे भी मेरा वैर नहीं है । मैं समस्त सावद्यसे- हिंसा आदि पातकोंसे युक्त मन-वचन कायके व्यापारसे - निवृत्त हूँ । इस प्रकार मुमुक्षुको सामायिक करना चाहिए ||३५||
विशेषार्थ - सामायिकमें यही भाव रहना चाहिए। इसी भावका नाम भावसामायिक है ||३५||
१. 'खमामि सव्वजीवाणं सव्वे जीवा खमंतु मे ।
मित्तो मे सत्रभूदेसु वैरं मज्झं ण केण वि ॥ - मूलाचार, ४३ गा. ।
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