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धर्मामृत ( अनगार) अथ बन्धुशत्रुविषयो रागद्वेषो निषेधयन्नाह
ममकारग्रहावेशमूलमन्त्रेषु बन्धुषु ।
को ग्रहो विग्रहः को मे पापघातिष्वरातिषु ॥३१॥ ग्रह:-रागः । निग्रहः-द्वेषः । पापघातिषु-दुःखोत्पादनद्वारेण पापक्षपणहेतुषु ॥३१॥ अर्थन्द्रियकसुखदुःखे प्रतिक्षिपन्नाह
कृतं तृष्णानुषङ्गिण्या स्वसौख्यमृगतृष्णया।
खिये दुःखे न दुर्वारकर्मारिक्षययक्षमणि ॥३२॥ कृतं-पर्याप्तं धिगिमामित्यर्थः। तृष्णा-वाञ्छा पिपासा वा। खिये-दैन्यं यामि । यक्ष्मा५ क्षयव्याधिः ॥३२॥ तथा अनिष्ट पदार्थ के संयोगको दुःखका और उसके वियोगको सुखका कारण मानना केवल मनकी कल्पना है
जिस प्रकार मुझे अनिष्ट वस्तुओंका वियोग सुखकर मालूम होता है उसी प्रकार इष्ट पदार्थोंकी प्राप्ति भी सुखकर मालूम होती है। तथा जिस प्रकार मुझे अनिष्ट संयोग दुःखदायक मालूम होता है उसी तरह इष्ट वियोग भी दुःखदायक मालूम होता है किन्तु यह सब कल्पना है वास्तविक नहीं। अर्थात् पदार्थों में इष्ट-अनिष्टकी कल्पना करके उन्हें सुख या दुःखकारक मानना कल्पना मात्र है। वास्तवमें न कोई पदार्थ इष्ट होता है और न अनिष्ट तथा न कोई परपदार्थ सुखदायक होता है और न कोई दुःखदायक ।।३०॥
आगे मित्रोंसे राग और शत्रुओंसे द्वषका निषेध करते हैं
ये बन्धु-बान्धव ममतारूपी भतके प्रवेशके मूलमन्त्र हैं अतः इनमें कैसा राग ? और शत्रु पापकर्मकी निर्जरा कराते हैं अतः इनसे मेरा कैसा द्वष ? ॥३१॥
विशेषार्थ-ये मेरे उपकारी हैं इस प्रकारकी बुद्धि एक प्रकारके ग्रहका आवेश है क्योंकि जैसे कोई मनुष्य शरीरमें किसी भूत आदिका प्रवेश होनेपर खोटी चेष्टाएँ करता है उसी प्रकार ममत्व बुद्धिके होनेपर भी करता है। इसका मूलमन्त्र हैं बन्धु-बान्धव, क्योंकि उन्हें अपना उपकारी मानकर ही उनमें ममत्व बुद्धि होती है । और उसीके कारण मनुष्य मोहपाशमें फँसकर क्या-क्या कुकर्म नहीं करता। ऐसे बन्धु-बान्धवोंमें कौन समझदार व्यक्ति राग करेगा जो उसके भावि दुःखके कारण बनते हैं। तथा शत्रु दुःख देते हैं और इस तरह पूर्व संचित पापकर्मकी निर्जरा कराते हैं । उनसे द्वेष कैसा, क्योंकि पापकर्मकी निर्जराके कारण होनेसे वे तो भला ही करते हैं। ऐसा विचार कर राग-द्वष नहीं करता ॥३१॥
आगे इन्द्रिय जन्य सुख-दुःखका तिरस्कार करते हैं
तृष्णाको बढ़ानेवाली इन्द्रिय सुख रूपी मृगतृष्णासे बहुत हो चुका, इसे धिक्कार है। तथा जिसको दूर करना अशक्य है उन कर्मरूपी शत्रुओंका क्षय करने में यक्ष्माके तुल्य दुःखसे मैं खिन्न नहीं होता ॥३२॥
विशेषार्थ-रेतीले प्रदेशमें मध्याह्नके समय सूर्यकी किरणोंसे जलका भ्रम होता है। प्यासे मृग जल समझकर उसके पास आते हैं किन्तु उनकी प्यास पानीकी आशासे और बढ़ जाती है, शान्त नहीं होती। उसी तरह इन्द्रिय जन्य सुखसे भोगकी तृष्णा बढ़ती ही है शान्त नहीं होती। ऐसे सुखको कौन समझदार चाहेगा। इसके विपरीत दुःखको सहन करनेसे पूर्व संचित कर्मकी निर्जरा होती है। जब कर्मका विपाक काल आता है वह पककर अपना
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