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धर्मामृत ( अनगार) [इतः परं त्रिंशत्संख्यकश्लोकपर्यन्तं टीका नास्ति ]
नामूर्तत्वाद्धिमाद्यात्मा कालः किं तर्हि पुद्गलः । तथोपचर्यते मूर्तस्तस्य स्पश्यो न जात्वहम ॥२५॥ सर्वे वैभाविका भावा मत्तोऽन्ये तेष्वतः कथम् । चिच्चमत्कारमात्रात्मा प्रीत्यप्रोती तनोम्यहम् ॥२६॥ जीविते मरणे लाभेऽलाभे योगे विपर्यये ।
बन्धावरौ सुखे दुःखे साम्यमेवाभ्युपैम्यहम् ॥२७॥ नहीं करता।' अथवा आराम शब्दका अर्थ निवृत्ति भी होता है। अतः आत्मासे भी जिसकी निवृत्ति है वह आत्माराम है ऐसा अर्थ भी लिया जाता है क्योंकि वास्तव में स्वात्मामें भी रति रागरूप होनेसे मोक्षके लिए प्रतिबन्धक है अतः मुमुक्षु स्वात्मामें भी रति नहीं करता ।।२४।।
काल सामायिककी भावना कहते हैं
कालद्रव्य हेमन्त, ग्रीष्म या वर्षाऋतुरूप नहीं है क्योंकि वह तो अमूर्तिक है उसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श नहीं है । किन्तु लोग मूर्त पुद्गल द्रव्यमें कालका व्यवहार करते हैं । उस मूते पुद्गल द्रव्यका विषय मैं कभी भी नहीं हूँ ॥२५॥ _ विशेषार्थ-निश्चय कालद्रव्य तो अमूर्तिक है । अतः लोकमें जो शीतऋतु, ग्रीष्मऋतु, वर्षाऋतु आदिको काल कहा जाता है वह तो उपचरित व्यवहार काल है, जो ज्योतिषी देवोंके गमन आदिसे और पौद्गलिक परिवर्तनसे जाना जाता है। अतः पौद्गलिक है। पुद्गल द्रव्य रूप, रस, गन्ध, स्पर्शवाला होनेसे मूर्तिक है। अतः यह आत्मा उससे सम्बद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि शद्ध निश्चयनयसे आत्मा चित्स्वरूप है। द्रव्यसंग्रह में कहा है कि शुद्ध निश्चयनयसे सब जीव सिद्ध समान शुद्ध होते हैं। ऐसी स्थितिमें ऋतुओंमें रागद्वेष कैसे किया जा सकता है । वह तो पुद्गलों का परिवर्तन है ।।२५।।
इस प्रकार क्रमसे नाम सामायिक, स्थापना सामायिक, द्रव्य सामायिक, क्षेत्र सामायिक और काल सामायिकको कहकर भाव सामायिकको कहते हैं
__तत्त्वदृष्टिसे मेरा स्वरूप तो चेतनाका चमत्कार मात्र है। शेष सभी औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव वैभाविक होनेसे मुझसे भिन्न हैं। अतः मैं उनमें कैसे रागद्वेष कर सकता हूँ ॥२६॥
विशेषार्थ-जीवके पाँच भावोंमें स्वाभाविक भाव केवल एक पारिणामिक है. शेष । चारों भाव औपाधिक हैं। उनमें औदयिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक भाव तो कर्म जनित हैं। क्षायिक भाव केवलज्ञानादि रूप जीवका यद्यपि स्वभाव है फिर भी कमौके क्षयसे उत्पन्न होनेसे उपचारसे कर्मजनित कहा जाता है। एक शुद्ध पारिणामिक ही साक्षात् कर्म निरपेक्ष है ॥२६॥
आगे नौ श्लोकोंसे भावसामायिकका ही विस्तारसे कथन करते हैं
मैं जीवनमें, मरणमें, लाभमें, अलाभ में, संयोगमें, वियोगमें, बन्धुमें, शत्रुमें और सुखमें, दुःखमें साम्य भाव ही रखता हूँ ॥२७॥ ।
विशेषार्थ-रागद्वेषके त्यागको साम्यभाव कहते हैं। अतः मैं जीवनमें राग और मरणमें द्वेषका त्याग करता हूँ। लाभमें राग और अलाभमें द्वेषका त्याग करता हूँ । इष्ट संयोगमें
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