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अष्टम अध्याय
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तथा
'अन्तरङ्गबहिरङ्गयोगतः कार्यसिद्धिरखिलेति योगिना।
आसितव्यमनिशं प्रयत्नतः स्वं परं सदृशमेव पश्यता ॥' [ पद्म. पञ्च. १०४४ ] ग्रहः-शुभाशुभाभिनिवेशः ॥२३॥ अथ क्षेत्रसामायिकं भावयन्नाह
राजधानीति न प्रीये नारण्यानीति चोद्विजे।
देशो हि रम्योऽरम्यो वा नात्मारामस्य कोऽपि मे ॥२४॥ प्रीये-रज्याम्यहम् । अरण्यानी-महारण्यम् । उद्विजे-उद्वेगं याम्यहम् । आत्मारामस्य-आत्मैव . आराम उद्यानं रतिस्थानं यस्य, अन्यत्र गतिप्रतिबन्धकत्वात् । यथाह
'यो यत्र निवसन्नास्ते स तत्र कुरुते रतिम् ।
यो यत्र रमते तस्मादन्यत्र स न गच्छति ।।' [ इष्टोप. श्लो. ४३ ] तथा
ग्रामोऽरण्यमिति द्वधा निवासोऽनात्मशिनाम।
दृष्टात्मनां निवासस्तु विविक्तात्मैव निश्चलः ॥' [ समा. तन्त्र, श्लो. ७३ ] अथवा आत्मनोऽप्यारामो निवृत्तिर्यस्येति ग्राह्यम् ॥२४॥
जो 'स्वद्रव्यवत्' दृष्टान्त दिया है वह अन्वय रूपसे भी घटित होता है और व्यतिरेक रूपसे भी घटित होता है। जो योगका अभ्यासी होता है वह तो स्वद्रव्यमें अभिनिवेश रखता है किन्तु जो उसमें परिपक्व हो जाता है उसके लिए स्वद्रव्यमें अभिनिवेश भी त्याज्य है। पद्म पश्च. में कहा है-वास्तव में 'मैं मुक्त हूँ' ऐसा विकल्प भी नहीं करना चाहिए और मैं कोंके समूहसे वेष्टित हूँ ऐसा भी विकल्प नहीं करना चाहिए। क्योंकि संयमी निर्विकल्प पदवीको प्राप्त करके ही मोक्षको प्राप्त करता है। और भी कहा है-जो-जो विकल्प मनमें आकर ठहरता है उस-उसको तत्काल ही छोड़ देना चाहिए । इस प्रकार जब यह विकल्पोंके त्यागकी पूर्णता हो जाती है तब मोक्षपद भी प्राप्त हो जाता है । सब कर्मोकी सिद्धि अन्तरंग
और बहिरंग योगसे होती है। इसलिए योगीको निरन्तर प्रयत्नपूर्वक स्व और परको समदृष्टिसे देखना चाहिए ॥२३॥
क्षेत्र सामायिककी भावना कहते हैं
यह राजधानी है, इसमें राजा रहता है ऐसा मानकर मैं राग नहीं करता और यह बड़ा भारी वन है ऐसा मानकर मैं द्वेष नहीं करता। क्योंकि मेरा आत्मा ही मेरा उद्यान है अतः अन्य कोई देश न मेरे लिए रमणीक है और न अरमणीक ॥२४॥
विशेषार्थ-वास्तवमें प्रत्येक द्रव्यका क्षेत्र उसके अपने प्रदेश हैं, निश्चयसे उसीमें उस द्रव्यका निवास है । बाह्य क्षेत्र तो व्यावहारिक है, वह तो बदलता रहता है, उसके विनाशसे आत्माकी कुछ भी हानि नहीं होती। अतः उसीमें रति करना उचित है। पूज्यपाद स्वामीने कहा है-'जिन्हें आत्मस्वरूपकी उपलब्धि नहीं हुई उनका निवास गाँव और वनके भेदसे दो प्रकारका है। किन्तु जिन्हें आत्मस्वरूपके दर्शन हुए हैं उनका निवास रागादिसे रहित निश्चल आत्मा ही है।'
'जो जहाँ रहता है वह वहीं प्रीति करता है। और जो जहाँ प्रीति करता है वह वहाँसे अन्यत्र नहीं जाता। अतः जिसका रतिस्थान आत्मा ही है वह बाह्य देशमें रति या अरति
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