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धर्मामृत ( अनगार ) 'सम्मत्तणाण दंसण वीरिय सुहुमं तहेव ओगहणं ।
अगुरुगलहुगमवाहं अट्ट गुणा होति सिद्धाणं ॥ [ भावसंग्रह ६९४ गा. ] भान्तु-परिस्फुरन्तु स्वसंवेदनसुव्यक्ताः सन्त्वित्यर्थः । सिद्धा:-सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिरेषामतिशयेनास्तीति । अर्श आदित्वादः । त एते नोआगमभावसिद्धा द्रव्यभावकर्मनिर्मुक्तत्वात् । तथा चोक्तम् –'संसाराभावे पुंसः स्वात्मलाभो मोक्ष' इति । मयि ग्रन्थकर्तर्यात्मनि ॥१॥ या परम सुख प्राप्त होता है, ज्ञानावरणके क्षयसे अनन्तज्ञान और दर्शनावरणके क्षयसे अनन्तदर्शन गुण प्रकट होते हैं। अन्तरायकर्मके क्षयसे अनन्तवीर्य प्रकट होता है, वेदनीयकर्मके क्षयसे अव्याबाधत्व गुण या इन्द्रियजन्य सुखका अभाव होता है, आयुकर्मके क्षयसे परमसौख्य की प्राप्ति या जन्ममरणका विनाश होता है। नामकर्मके क्षयसे परम अवगाहना या अमूर्तत्व प्रकट होता है । गोत्रकर्मके क्षयसे अगुरुलघुत्व या दोनों कुलोंका अभाव प्राप्त होता है। इस तरह जिन्होंने स्वात्मोपलब्धि रूप सिद्धिको प्राप्त कर लिया है वे सिद्ध सर्वप्रथम ग्रन्थकारकी आत्मा और पश्चात् उसके पाठकोंकी आत्मामें स्वसंवेदनके द्वारा सुस्पष्ट होवें यह ग्रन्थकारकी भावना है।
सारांश यह है कि अन्तरंग व बहिरंग कारणके बलसे सम्यग्दर्शनको प्राप्त करके फिर समस्त परिग्रहको त्याग कर सदा सम्यक् श्रुतज्ञानकी भावनामें तत्पर रहते हुए समस्त इन्द्रियों और मनको अपने-अपने विषयोंसे हटाकर अपनी शुद्ध आत्माको शुद्ध आत्मामें स्थिर करके उसमें भी तृष्णारहित होकर, घातिकर्मोंको नष्ट करके स्वाभाविक निश्चल चैतन्य स्वरूप होकर, पुनः अघातिकर्मीको भी नष्ट करके लोकके अग्रभागमें स्थिर होकर जो सदा ज्ञान, केवलदर्शन, सम्यक्त्व और सिद्धत्वभावसे शोभित होते हैं वे भगवान् सिद्ध परमेष्ठी नोआगमभाव रूपसे मेरेमें स्वात्माका दर्शन देवें । अर्थात् मैं उस सिद्ध स्वरूपको प्राप्त कर सकें।
___ अर्हन्त आदिके गुणोंमें सभी प्रकारका अनुराग शुभ परिणाम रूप होनेसे अशुभ कर्मप्रकृतियोंमें रसकी अधिकताका उन्मूलन करके वांछित अर्थको प्राप्त करनेमें सहायक होता है इसलिए विचारशील पूर्वाचार्य अपने ज्ञानसम्बन्धी दानान्तराय कर्मको और श्रोताओंके ज्ञानसम्बन्धी लाभान्तराय कर्मको दूर करने के लिए अपने-अपने शास्त्रके प्रारम्भमें अर्हन्त आदि समस्त पञ्चपरमेष्ठियोंका या उनमेंसे किसी एकका अथवा उनके गुणोंका इच्छानुसार संस्तवनरूप मंगल करते हुए पाये जाते हैं। इस शास्त्रके प्रारम्भमें भी ग्रन्थकारने अपने और दूसरोंके विघ्नोंकी शान्तिके लिए सर्वप्रथम सिद्धोंका, उनके पश्चात् अर्हन्त आदिका विनयकर्म नान्दीमंगलरूप से किया है।
तथा, जो जिस गुणका प्रार्थी होता है वह उस गुणवाले का आश्रय लेता है इस नियमके अनुसार चूंकि ग्रन्थकार सिद्ध परमेष्ठीके गुणोंके प्रार्थी हैं अतः प्रथम सिद्धोंकी वन्दना करते हैं तथा उनकी प्राप्तिके उपायोंका उपदेश करनेवालोंमें सबसे ज्येष्ठ अर्हन्तपरमेष्ठी होते हैं अतः सिद्धोंके पश्चात् अर्हन्त आदिका भी स्मरण करते हैं। कहा भी है
१. अभिमतफलसिद्धरभ्युपायः सुबोधः प्रभवति स च शास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिराप्तात् । इति भवति स पूज्यस्तत्प्रसादप्रबुद्धर्न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति ॥'
-तत्त्वार्थश्लोकवातिकमें उद्धृत
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