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________________ प्रथम अध्याय संयम्य-तत्तद्विषयान्निवयं । सैषा तप-आराधना । 'इन्द्रियमनसोनियमानुष्ठानं तपः' इत्यभिधानात् । शमिनः-ध्यायप्पि (ध्येयेऽपि ) वितृष्णाः सन्तः । अमलं-द्रव्य-भावकर्मनिर्मुक्तम् । सोऽयं ध्यात्वेत्यादिना निश्चयमोक्षमार्गः । उक्तं च 'रयणत्तयं ण वट्टइ अप्पाणं मुइत्तु अण्णदवियम्मि । तम्हा तत्तियमइओ हंदि (होदि) हु मोक्खस्स कारणं आदा ॥' । [द्रव्यसं. ४० गा.] ६ निमूल्य--मूलादपि निरस्य । कर्म-ज्ञानावरणादिकं आत्मप्रदेशपरिस्पन्दरूपं वा । शर्मप्रगुणैःशर्म सुखं तदेव प्रकृष्ट: सर्वेषामभीष्टतमत्वात्, गुणो धर्मो येषां ते तथोक्ताः परमानन्दामृतखचिता इत्यर्थः । चकासति-नित्यं दीप्यन्ते, नित्यप्रवृत्तस्य वर्तमानस्य विवक्षितत्वात् । एवमुत्तरत्रापि । गुणैः सम्यक्त्वादिभिः । ९ तद्यथा प्रणिधान रूपसे विकल्प करता है वह भावमन है। कहा भी है '-आत्माके गुणदोषविचार, स्मरण आदि प्रणिधानको भावमन कहते हैं। और गुणदोषका विचार तथा स्मरणादि प्रणिधानके अभिमुख आत्माके अनग्राहक पुद्गलोंके समूहको द्रव्यमन कहते हैं। ___यह तप आराधना है क्योंकि इन्द्रिय और मनके द्वारा नियमके अनुष्ठानका नाम तप है। ऐसा आगममें कहा है । यह व्यवहार मोक्षमार्ग है। आगे 'ध्यात्वा' इत्यादि पदोंके द्वारा ग्रन्थकारने निश्चय मोक्षमार्गका कथन किया है। एक ही विषयमें मनके नियमनको ध्यान कहते हैं। जब चिन्ता के अनेक विषय होते हैं तो वह चंचल रहती है, उसको सब ओर से हटाकर एक ही विषयमें संलग्न करना ध्यान है। इस ध्यानका विषय द्रव्यकर्म और भावकर्मसे रहित तथा मिथ्याअभिनिवेश, संशय विपर्यय अनध्यवसायमें रहित ज्ञानस्वरूप या परम औदासीन्यरूप निर्मल आत्मा होती है। ऐसी आत्माका ध्यान करनेवाले आनन्दसे ओतप्रोत शुद्ध स्वात्मानुभूतिके कारण अत्यन्त तृप्त होते हैं। ध्येयमें भी उनकी वितृष्णा रहती है। कहा भी है-अधिक कहनेसे क्या ? तात्त्विक रूपसे श्रद्धान करके तथा जानकर ध्येयमें भी मध्यस्थभाव धारण करके इस समस्त तत्त्वका ध्यान करना चाहिए । यह निश्चय मोक्षमार्ग है। द्रव्यसंग्रहमें कहा है-आत्माके सिवाय अन्य द्रव्यमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूप रत्नत्रय नहीं रहता। इसलिए रत्नत्रयमय आत्मा ही मोक्षका कारण है। मोक्षकी प्राप्ति कर्मोका निर्मूलन किये विना नहीं होती। मिथ्यादर्शन आदिसे परतन्त्र आत्माके द्वारा जो किया जाता है-बाँधा जाता है उसे कर्म कहते हैं । आत्माकी परतन्त्रतामें निमित्त ज्ञानावरण आदि अथवा आत्मप्रदेशोंके हलनचलनरूप कर्मको कर्म कहते हैं। समस्त द्रव्यकर्म, भावकर्म या घातिकर्म और अघातिकर्मका क्षय करके अनादि मिथ्यादृष्टि या सादिमिथ्यादृष्टि भव्यजीव अनन्तज्ञान आदि जिन आठ गुणोंसे सदा शोभित होते हैं उनमें सबसे उत्कृष्ट गुण सुख है क्योंकि सभी उसे चाहते हैं । मोहनीय कमके क्षयसे परम सम्यक्त्व १. गणदोषविचारस्मरणादिप्रणिधानमात्मनो भावमनः । तदभिमुखस्यैवानुग्राही पुद्गलोच्चयो द्रव्यमनः ॥-इष्टोप. ४९ । २. किमत्र बहुनोक्तेन ज्ञात्वा श्रद्धाय तत्त्वतः । ध्येयं समस्तमप्येतन्माध्यस्थं तत्र बिभ्रता ॥-तत्त्वान. १३८ श्लोक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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