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________________ अष्टम अध्याय ५७१ अथ पञ्चदशभिः श्लोकः सामायिकाश्रयणविधिमभिधातुकामः प्रथमं तावन्नामसामायिक भावयन्नाह शुभेऽशुभे वा केनापि प्रयुक्ते नाम्नि मोहतः। स्वमवाग्लक्षणं पश्यन्न रति यामि नारतिम ॥२१॥ अवागलक्षणं-लक्ष्यते इति लक्षणं लक्षणीयं विषय इति यावत् । वाचां लक्षणं वाग्लक्षणम् ।। न तथा, वाचामविषय इत्यर्थः । यथाह 'यज्जानन्नपि बुद्धिमानपिगुरुः शक्तो न वक्तुं गिरा प्रोक्तं चेन्न तथापि चेतसि नृणां सम्माति चाकाशवत् । यत्र स्वानुभवस्थितेऽपि विरला लक्ष्यं लभन्ते चिरात् तन्मोक्षेकनिबन्धनं विजयते चित्तत्वमत्यद्भतम् ।।' [ पद्म. पञ्च. १०।१] अथवा न वाशब्दो लक्षणं स्वरूपं यस्य सोऽवागलक्षणस्तम्, अशब्दात्मकमित्यर्थः । यथाह-अरसमरूवमित्यादि ॥२१॥ अथ स्थापनासामायिकं भावयन्नाह यदियं स्मरत्यर्चा न तदप्यस्मि कि पुनः। इयं तदस्यां सुस्थेति धीरसुस्थेति वा न मे ॥२२॥ आगे पन्द्रह श्लोकोंसे सामायिक करनेकी विधिको कहनेकी इच्छासे सर्वप्रथम नाम सामायिकको कहते हैं अज्ञानवश किसी मित्रके द्वारा प्रशस्त नाम लिये जानेपर मैं उससे राग नहीं करूँगा और शत्रुके द्वारा बुरा नामका प्रयोग किये जानेपर उससे द्वेष नहीं करूंगा क्योंकि मैं वचनके गोचर नहीं हूँ । यह नाम सामायिक है ।।२१।। _ विशेषार्थ-प्रायः मनुष्य किसीके द्वारा अपना नाम आदरपूर्वक लिये जानेपर प्रसन्न होते हैं और निरादरपूर्वक लिये जानेपर नाराज होते हैं। ऐसा न करना नाम सामायिक है क्योंकि आत्मा तो शब्दका विषय नहीं है। पद्म. पश्च. में कहा है-जिस चेत जानता हुआ भी और बुद्धिमान् भी गुरु वाणीके द्वारा कहनेके लिए समर्थ नहीं है, तथा यदि कहा भी जाये तो भी जो आकाशके समान मनुष्योंके हृदयमें समाता नहीं है, तथा जिसके स्वानुभवमें स्थित होते हुए भी विरले ही मनुष्य दीर्घकालके पश्चात् लक्ष्य मोक्षको प्राप्त कर पाते हैं, वह मोक्षका एकमात्र कारण आश्चर्यजनक चेतन तत्त्व जयवन्त होवे ।' 'अवाग्लक्षण'का दूसरा अर्थ यह भी होता है कि उसका लक्षण शब्द नहीं है अर्थात् अशब्दात्मक है। आचार्य कुन्दकुन्दने कहा भी है-जीव रस-रूप और गन्धसे रहित है, अव्यक्त है, चेतना गुणसे युक्त है, शब्दरूप नहीं है, किसी चिह्नसे उसका ग्रहण नहीं होता, तथा उसका आकार कहा नहीं जा सकता ॥२१॥ स्थापना सामायिककी भावना कहते हैं यह सामने विराजमान प्रतिमा मुझे जिस अर्हन्त स्वरूपका स्मरण कराती है मैं उस अर्हन्त स्वरूप भी नहीं हूँ तब इस प्रतिमास्वरूप तो मैं सर्वथा ही नहीं हूँ। इसलिये मेरी बुद्धि इस प्रतिमामें न तो सम्यक् रूपसे ठहरी ही हुई है और न उससे विपरीत ही है ॥२२॥ १. 'अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसदं । जाणमलिंगग्गहणं जीवमणिट्रिसंठाणं ॥-समयसार, ४९ गा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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