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धर्मामृत (अनगार )
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वर्तमानपर्यायोपलक्षितं द्रव्यं भावः । तस्य सामायिकं ( - भावसामायिकं तच्च ० ) द्विविधमागमभाव सामायिकं नोआगभभाव सामायिनं चेति । सामायिकवर्णकप्राभृतकज्ञायक उपयुक्तो जीव आगमभावसामायिकम् । नोआगमभावसामायिकं द्विविधमुपयुक्ततत्परिणतभेदात् । ( सामायिकप्राभृतकेन विना सामायिकार्थेषूपयुक्तो जीवः उपयुक्त नोआगमगव - ) सामायिकम् । रागद्वेषाद्य भावस्वरूपेण परिणतो जीवस्तत्परिणतनोआगमभावसामायिकम् । एष न्यायं यथास्वमुत्तरेष्वपि योज्यः । अथैषां षण्णामपि मध्ये आगमभाव सामायिकेन नोआगमभावसामायिकेन च प्रयोजनमिति ॥१९॥
निरुक्त्यन्तरेण पुनर्भावसामायिकं लक्षयन्नाह -
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समयो ज्ञानतपोयमनियमादौ प्रशस्तसमगमनम् । स्यात् साय एव सामायिकं पुनः स्वार्थिकेन ठणा ॥२०॥
समयः -- अत्र समिप्राशस्त्य एकीभावे च विवक्षितः । अय इति गमने । नियमादी आदिशब्देन परीषह कषायेन्द्रियजयसंज्ञादुर्लेश्टदुर्ध्यानवर्जनादिपरिग्रहः । समं समानमेकत्वेनेत्यर्थः । ठाणा 'विनयादेष्ठण्' १२ इत्यनेन विहितेन । उक्तं च
'सम्मत्तणाण जमतवेहि जं तं पसत्थसमगमणं ।
समयं तु तं तुभणिदं तमेव सामाइयं जाणे ॥' [मूलचार. गा. ५१९] इत्यादि ॥२०॥
ज्ञाता उसमें उपयुक्त है वह नागम भाव सामायिक है । नोआगम भाव सामायिकके दो भेद हैं- उपयुक्त और तत्परिणः । सामायिक विषयक शास्त्रके बिना सामायिकके अर्थमें उपयुक्त जीवको उपयुक्त नोआग भाव सामायिक कहते हैं । तथा राग-द्वेष के अभाव रूपसे परिणत जीव तत्परिणत नोआम भाव सामायिक है । तथा सब जीवों में मैत्रीभाव और अशुभ परिणामका त्याग भावसामायिक है । यहाँ उक्त छह प्रकारकी सामायिकों में से आगम भाव सामायिक और नोआमभाव सामायिकसे प्रयोजन है ||१९||
आगे अन्य प्रकारसे निरुक्ति रके भाव सामायिकका लक्षण कहते हैं—
दर्शन, ज्ञान, तप, यम, नियम आदिके विषय में प्रशस्त एकत्व रूपसे गमन करने को समय कहते हैं । और समय ही सामयेक है इस प्रकार समय शब्दसे स्वार्थ में ठण् प्रत्यय होकर सामायिक शब्द बनता है ||२०||
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विशेषार्थ -सम् और अयके मेल समय शब्द निष्पन्न होता है । सम् शब्दके दो अर्थ होते हैं - प्रशस्तता और एकत्व । था अथका अर्थ होता है गमन । 'आदि' शब्दसे परीषह, कषाय और इन्द्रियोंको जीतना, सा, खोटा ध्यान, अशुभ लेश्याओंका त्याग आदि लेना चाहिए । अतः दर्शन, ज्ञान, तप, यम, नेयम, परीषहजय, कषायजय, इन्द्रियजय आदिके विषय में प्रशस्त एकत्वरूपसे परिणत होन अर्थात् राग-द्वेष आदि न करना समय है और समय ही सामायिक है इस तरह संस्कृत व्यकरण के अनुसार समय शब्द से स्वार्थ में ठण् प्रत्यय करके और ठणके स्थान में इकू होकर साायिक शब्द बनता है ।
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मूलाचार में कहा है- सम्यग्दर्शन, सम्यान, संयम और तपके साथ जो एकमेकपना है अर्थात् जीवका उन रूपसे परिणमन है ज समय कहते हैं और समयको ही सामायिक जानो ॥२०॥
१- २. भ. कु. च. ।
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