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धर्मामृत (अनगार) ननु च मुमुक्षुश्च बन्धनिबन्धनक्रियापरश्चेति विप्रतिषिद्धमेतद् इत्यत्र समाधत्ते
सम्यगावश्यकविधेः फलं पुण्यात्रवोऽपि हि ।
प्रशस्ताववसायोंहच्छित् किलेति मतः सताम् ॥१४॥ अंहरिछत्-पापापनेता । उक्तं च
'प्रशस्ताध्यवसायेन संचितं कर्म नाश्यते । काष्ठं काष्ठान्तकेनेव दीप्यमानेन निश्चितम् ॥' [ अमित. श्रा. ८५ ] ॥१४॥
जीवका एक सम्यक्त्व गुण है जो विभावरूप होकर मिथ्यात्वरूप परिणमा है। एक चरित्र गुण है जो विभावरूप होकर कषायरूप परिणमा है । जीवके पहले मिथ्यात्व कर्मका उपशम या क्षय होता है उसके बाद चारित्रमोहका उपशम या क्षय होता है। निकट भव्य जीवके काललाब्ध प्राप्त हानपर मिथ्यात्व कमका उपशम होता है तब जीव सम्यक्त्व गुणरूप परिणमता है। यह परिणमन शद्धता रूप है। वही जीव जबतक क्षपक श्रेणीपर चढ़ता है तबतक चारित्रमोहका उदय रहता है। उस उदयके रहते हुए जीव विषयकषायरूप परिणमता . है वह परिणमन रागरूप होनेसे अशुद्ध रूप है। इस तरह एक जीवके एक ही समयमें शुद्धपना और अशुद्धपना रहता है। यद्यपि सम्यग्दृष्टि क्रियासे विरत होता है उसका कर्ता अपनेको नहीं मानता फिर भी चारित्रमोहके उदयमें बलात् क्रिया होती है। जितनी क्रिया है वह कर्मबन्धका कारण है और एकमात्र शुद्ध चैतन्य प्रकाश मोक्षका कारण है। अर्थात् सम्यग्दृष्टिके एक ही कालमें शुद्ध ज्ञान भी है और क्रिया भी है। क्रियारूप परिणामसे केवल बन्ध होता है। तथा उसी समय शद्ध स्वरूपका ज्ञान भी है उस ज्ञानसे कमक्षय होता है। इस तरह एक जीवके नीचेकी भूमिकामें ज्ञान और क्रिया दोनों एक साथ रहती हैं इसमें कोई विरोध नहीं है । अतः जबतक ज्ञानकी कर्मविरति परिपक्वताको प्राप्त नहीं होती तबतक ज्ञानी मुनि षट्कर्म करता है ॥१३॥
इसपर-से यह शंका होती है कि मुमुक्षु होकर ऐसी क्रियाएँ क्यों करता है जो कर्मबन्धमें निमित्त पड़ती हैं ? इसका समाधान करते हैं
आगममें ऐसा सुना जाता है कि प्रशस्त अध्यवसाय अर्थात् शुभपरिणाम पुण्यास्रवका कारण होनेपर भी पापकर्म के नाशक हैं। और वे शुभ परिणाम समीचीन आवश्यक विधिका फल हैं । अतः साधुओंको प्रशस्त अध्यवसाय मान्य है ॥१४॥
___ विशेषार्थ-आचार्य कुन्दकुन्दने प्रवचनसारमें लिखा है-विशिष्ट परिणामसे बन्ध होता है और रागद्वेष तथा मोहसे युक्त परिणामको विशिष्ट कहते हैं। जो परिणाम मोह और द्वेषसे युक्त होता है वह अशुभ है और जो परिणाम रागसे युक्त होता है वह शुभ भी होता है और अशुभ भी होता है। तथा-अमृतचन्द्रजीने प्र. २-८९ टीकामें लिखा हैपरिणाम दो प्रकारके हैं-एक परद्रव्यमें प्रवृत्त और एक स्वद्रव्यमें प्रवृत्त । जो परिणाम परद्रव्यमें प्रवृत्त होता है उसे विशिष्ट परिणाम कहते हैं और स्वद्रव्यमें प्रवृत्त परिणाम परसे उपरक्त न होनेसे अविशिष्ट कहा जाता है । विशिष्ट परिणामके दो भेद हैं-शुभ और अशुभ ।
१. 'सुह परिणामो पुण्णं असुहो पाव त्ति भणियमण्णेसु ।
परिणामो णण्णगदो दुक्खक्खयकारणं समये ।-प्रवचन. २२८९।
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