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अष्टम अध्याय
अथ प्रकृतमुपसंहरन् शुद्धात्मसंविल्लाभादधः क्रियामूरीकरोति - इतीह्यभेदविज्ञानबलाच्छुद्धात्म संविदम् ।
साक्षात्कर्मोच्छिदं यावल्लभे तावद् भजे क्रियाम् ॥१३॥
क्रियां - सम्यग्ज्ञानपूर्वकमावश्यकम् । सैषा न्यग्भावितज्ञानभावितज्ञानक्रियाप्रघाना मुमुक्षोरधस्तनभूमिका परिकर्मतयोपदिष्टा । यथाह
यावत्पाकमुपैति कर्मविरतिर्ज्ञानस्य सम्यङ् न सा, कर्मज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्तावन्न काचित् क्षतिः । किन्त्वत्रापि समुल्लसत्यवशतो यत्कमंबन्धाय तन्
मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्तं स्वतः ॥ [सम. कल., श्लो. ११०] ॥१३॥
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क्रोधका परिणमन ज्ञान नहीं है और ज्ञानका परिणमन क्रोध नहीं है । क्रोधादि होनेपर क्रोधादि हुए प्रतीत होते हैं और ज्ञानके होनेपर ज्ञान हुआ प्रतीत होता है । इस प्रकार ये दोनों एक वस्तु नहीं हैं। जब इस तरह दोनोंके भेदको जानता है तब एकत्वका अज्ञान मिट जाता है और अज्ञाननिमित्तिक पुद्गल कर्मका बन्ध भी रुक जाता है । इस तरह भेदज्ञानसे बन्धका निरोध होनेपर मोक्षसुखकी प्राप्ति होती है। कहा है- 'जितने भी सिद्ध हुए हैं वे भेदज्ञानसे ही हुए हैं और जितने बँधे हैं वे सब भेदविज्ञानके अभाव से ही बँधे हैं ।'
क्रोधादिमें आये आदि शब्दसे आत्माकी परतन्त्रता में निमित्त राग-द्वेष-मोह, बादरयोग, सूक्ष्मयोग, अवातिकमका तीव्र तथा मन्द उदय और कालविशेषका ग्रहण किया है । इन सभीकी निवृत्ति होनेपर ही मोक्षकी प्राप्ति होती है ॥ १२ ॥
आगे प्रकृत चर्चाका उपसंहार करते हुए कहते हैं कि साधु शुद्ध आत्मज्ञानकी प्राप्ति होने तक क्रियाओं को भी पालन करनेकी प्रतिज्ञा करता है
इस प्रकार आगममें प्रतिपादित भेदविज्ञानके बलसे साक्षात् घाति-अघाति कर्मोंको नष्ट करनेवाले शुद्ध आत्माके ज्ञानको जब तक प्राप्त करता हूँ तबतक सम्यग्ज्ञानपूर्वक आवश्यक क्रियाओंको मैं पालूँगा अर्थात् शुद्ध सर्वविवर्तरहित आत्माकी सम्प्राप्ति जबतक नहीं होती तबतक साधु आवश्यक कर्मोंको करता है ||१३||
विशेषार्थ - आगे सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, बन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन छह आवश्यकोंका कथन करेंगे। यह छह आवश्यक तभी तक किये जाते हैं जबतक मुनिको शुद्ध आत्माकी संवित्तिका लाभ नहीं होता । इन षट्कर्मोंसे कर्मबन्धनका उच्छेद नहीं होता । कर्मबन्धनका उच्छेद तो शुद्धात्माके संवेदनसे होता है । जो मुमुक्षु Marat भूमिका में स्थित है और ज्ञान तथा क्रियाको भेदकी प्रधानता से ग्रहण करता है उसके अभ्यासके लिए षट्कर्म कहे हैं। कहा है- 'जबतक कर्मका उदय है और ज्ञानकी सम्यक् कर्मविरति नहीं है तबतक कर्म और ज्ञानका समुच्चय - इकट्ठापना भी कहा है उसमें कुछ हानि नहीं है । किन्तु इतना विशेष यहाँ जानना कि इस आत्मामें कर्मके उदयकी परवशतासे आत्मा शके बिना जो कर्मका उदय होता है वह तो बन्धके ही लिए है । किन्तु मोक्षके लिए तो परम ज्ञान ही है जो कर्मके करने में स्वामित्वरूप कर्तृत्वसे रहित है ।' आशय यह है कि जबतक अशुद्ध परिणमन है तबतक जीवका विभावरूप परिणमन है । उस विभाव परिणमनका अन्तरंग निमित्त है जीवकी विभाव परिणमनरूप शक्ति, बहिरंग निमित्त मोहनीय कर्मका उदय | वह मोहनीय कर्म दो प्रकारका है - मिथ्यात्व मोहनीय और चारित्रमोहनीय |
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