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धर्मामृत ( अनगार) गुणाढये-गुणाधिके । कृशे-व्याध्याक्रान्ते । शय्यायां-बसतौ। उपगृहीते-उपकारे आचार्या दिस्वीकृते वा। सपरिग्रहरक्षणं-संगृहीतरक्षणोपेतम् । अथवा गुणाढ्यादीनामागतानां संग्रहो रक्षा च ३ कर्तव्येत्यर्थः । बाला:-नवकप्रवजिताः । वृद्धाः-तपोगुणवयोभिरधिकाः । गच्छे सप्तपुरुषसन्ताने गुर्वादिपञ्चके आचार्योपाध्यायप्रवर्तकस्थविरगणधरेषु ॥८१॥ अथ मुमुक्षोः स्वाध्याये नित्याभ्यासविधिपूर्वकं निरुक्तिमुखेन तदर्थमाह
नित्यं स्वाध्यायमभ्यस्येत्कर्मनिर्मलनोद्यतः।
स हि स्वस्मै हितोऽध्यायः सम्यग्वाऽध्ययनं श्रुतेः ॥४२॥ हितः-संवरनिर्जराहेतुत्वात् । सम्यगित्यादि- सुसम्यगाकेवलज्ञानोत्पत्तेः श्रुतस्याध्ययनं स्वाध्याय९ इत्यन्वर्थाश्रयणात् ॥८२॥
वयावृत्यके सम्बन्धमें कहा है-गुणोंमें अधिक उपाध्याय, साध, दुर्बल या व्याधिसे __ ग्रस्त नवीन साधु, तपस्वी, और संघ कुल तथा गणकी वैयावृत्य करना चाहिये। उन्हें
वसतिकामें स्थान देना चाहिए, बैठनेको आसन देना चाहिए, पठनमें सहायता करनी
चाहिए तथा आहार, औषधमें, सहयोग करना चाहिए। मल निकल जाये तो उसे उठाना - चाहिए। इसी तरह मारी, दुर्भिक्ष, चोर, मागे, सर्पादि तथा नदी आदिमें स्वीकृत साधु
आदिकी रक्षाके लिए वैयावृत्य कहा है। अर्थात् जो मार्गगमनसे थका है, या चोरोंसे सताया गया है, नदीके कारण त्रस्त है, सिंह, व्याघ्र आदिसे पीड़ित है, भारी रोगसे ग्रस्त है, दुर्भिक्षसे पीड़ित है उन सबका संरक्षण करके उनकी सेवा करनी चाहिए। बाल और वृद्ध तपस्वियोंसे आकुल गच्छकी तथा आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, प्रवर्तक और गणधर इन पाचोंकी सर्वशक्तिसे वैयावृत्य करना चाहिये । ऐसा जिनदेवने कहा है ॥८॥
अब मुमुक्षुको नित्य विधिपूर्वक स्वाध्यायका अभ्यास करनेकी प्रेरणा करते हुए स्वाध्यायका निरुक्तिपूर्वक अर्थ कहते हैं
ज्ञानावरणादि कर्मोके अथवा मन वचन कायकी क्रियाके विनाशके लिए तत्पर मुमुक्षु को नित्य स्वाध्याय करना चाहिए। क्योंकि 'स्व' अर्थात् आत्माके लिए हितकारक परमागमके 'अध्याय' अर्थात् अध्ययनको स्वाध्याय कहते हैं। अथवा 'सु' अर्थात् सम्यक् श्रुतके जब तक केवलज्ञान उत्पन्न हो तब तक अध्ययनको स्वाध्याय कहते हैं ।।८२॥
विशेषार्थ-स्वाध्याय शब्दकी दो निरुक्तियाँ है-स्व+अध्याय और सु+अध्याय । अध्यायका अर्थ अध्ययन है। स्व आत्माके लिए हितकर शास्त्रोंका अध्ययन स्वाध्याय है क्योंकि समीचीन शास्त्रोंके स्वाध्यायसे कर्मोंका संवर और निर्जरा होती है । और 'सु' अर्थात् सम्यक् शास्त्रोंका अध्ययन स्वाध्याय है ।।८।।
१. आइरियादिसु पंचसु सवालवुड्डाउलेसु गच्छेसु ।
वैयावच्चं वुत्तं कादव्वं सव्वसत्तीए । गुणाधिए उवज्झाए तवस्सि सिस्से य दुव्वले । साहुगणे कुले संघे समणुण्णे य चापदि ॥ सेज्जोगासणिसेज्जो तहोवहिपडिलेहणाहि उवग्गहिदे । आहारोसहवायण विकिचिणं वंदणादीहिं ।।-मूलाचार, ५।१९२-१९४
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