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प्रथम अध्याय
नमः सिद्धेभ्यः प्रणम्य वीरं परमावबोधमाशाधरो मुग्धविबोधनाय । स्वोपज्ञधर्मामतधर्मशास्त्रपदानि किंचित प्रकटीकरोति ॥१॥
तत्र
नास्तिकत्वपरीहारः शिष्टाचारप्रपालनम् ।
पुण्यावाप्तिश्च निर्विघ्नं शास्त्रादावाप्तसंस्तवात् ।। इति मनसिकृत्य ग्रन्थकारः परमाराध्य-सिद्धार्हत्परमागमकर्तव्याख्यादेशनाः स्वष्टसिद्धयर्थ क्रमशः सप्रश्रयमाश्रयते । तत्रादौ तावदात्मनि परमात्मनः परिस्फूतिमाशंसति-हेत्वित्यादि
हेतुद्वैतबलादुदीणंसुदृशः सर्वसहाः सर्वशस्त्यक्त्वा संगमजस्रसुश्रुतपराः संयम्य साक्ष मनः। ध्यात्वा स्वे शमिनः स्वयं स्वममलं निर्मूल्य कर्माखिलं,
ये शर्मप्रगुणैश्चकासति गुणैस्ते भान्तु सिद्धा मयि ॥१॥ हेतुद्वैतबलात्-अन्तरङ्गबहिरङ्गकारणद्वयावष्टम्भात् । तदुक्तम्
आसन्नभव्यता-कर्महानिसंज्ञित्व-शुद्धपरिणामाः।
सम्यक्त्वहेतुरन्तर्बाह्योऽप्युपदेशकादिश्च ॥ 'शास्त्रके प्रारम्भमें आप्तका स्तवन करनेसे नास्तिकताका परिहार , शिष्टाचारका पालन और निर्विघ्न पुण्यकी प्राप्ति होती है'।
मनमें ऐसा विचार कर ग्रन्थकार अपनी इष्ट सिद्धिके लिए क्रमसे परम आराध्य सिद्ध परमेष्ठी, अर्हन्त परमेष्ठी, परमागमके कर्ता गणधर, व्याख्याता आचार्य और धर्मदेशनाका विनयपूर्वक आश्रय लेते हैं। उनमें से सर्व-प्रथम आत्मामें परमात्माके प्रतिभासकी कामना करते हैं-हेत्वित्यादि। ___अन्तरंग और बहिरंग कारणोंके बलसे सम्यक्त्वको प्राप्त करके, समस्त अन्तरंग व बहिरंग परिग्रहोंको त्यागकर, समस्त उपसर्ग और परीषहोंको सहन करके निरन्तर स्वात्मोन्मुख संवित्तिरूप श्रुतज्ञानमें तत्पर होते हुए मन और इन्द्रियोंका नियमन करके, तृष्णारहित होकर अपने में अपने द्वारा अपनी निर्मल आत्माका ध्यान करके जो समस्त द्रव्यभावकर्मोंको निर्मूलन करते हैं और सुख रूप प्रमुख गुणोंसे सर्वदा शोभित होते हैं, वे सिद्ध परमेष्ठी मेरी आत्मामें भासमान हों-स्वसंवेदनके द्वारा सुस्पष्ट हों ॥१॥
विशेषार्थ-यद्यपि 'अन्तरंग व बहिरंग कारणोंके बलसे' यह पद सम्यग्दर्शनके साथ प्रयुक्त किया गया है किन्तु यह पद आदि दीपक है और इसलिए आगेके समस्त परिग्रहका
१. उद्धृतमिदं सोमदेव उपासकाध्ययने षष्ठप्रस्तावे ।
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