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धर्मामृत ( अनगार) समपर्यङ्कनिषद्योऽसमयुतगोदोहिकास्तथोत्कुटिका। मकरमुखहस्तिहस्ती गोशय्या चार्धपर्यङ्कः ॥ वीरासनदण्डाद्या यतोवंशय्या च लगडशय्या च । उत्तानमवाकशयनं शवशय्या चैकपार्श्वशय्या च ॥ अभ्रावकाशशय्या निष्ठीवनवर्जनं न कण्डया। तणफलकशिलेलास्वापसेवन केशलोचं वा॥ स्वापवियोगो रात्रावस्नानमदन्तघर्षणं चैव ।
कायक्लेशतपोदः शीतोष्णातापनाप्रभृति ॥' [भ. आ., गा. २२२-२२७ का रूपान्तर] साधारणं (साधार) सावष्टम्भम् , स्तम्भादिकमाश्रित्येत्यर्थः । सविचारं ससंक्रमम् । देशा (-द्देशान्तरं गत्वा)। ससन्निरोधं निश्चलम् । विसृष्टाङ्गं सकायोत्सर्गम् । गृभ्रंस्थित्या गृस्योर्ध्वगमनमिव बाहू प्रसार्य इत्यर्थः।
समयुतं स्फिकिपडसम फरणेनासनम् । गोदूहिका गोदोहने आसनमिवासनम् । उत्कुटिका उद्ध्वं संकुचितमासनम् । १२ मकरमुख-मकरस्य मुखमिव पादौ कृत्वासनम् । हस्तिहस्तः हस्तिहस्तप्रसारणमिवैकं पादं प्रसार्यासनम् । हस्तं
प्रसार्य इत्यपरे । गोशय्या गवामासनमिव । वीरासनं जङ्घ विप्रकृष्टदेशे कृत्वासनम् । लगडशय्या-संकुचित
गात्रस्य शयनम् । अवाक् नीचमस्तकम् । अभावकाशशय्या-बहिनिरावरणदेशे शयनम् ॥३२॥ १५ अथैवं षड्विधं बहिरङ्गं तपो व्याख्याय तत्तावदेवाभ्यन्तरं व्याकर्तुमिदमाह
खड़े होना, जिस तरह गृद्ध ऊपरको जाता है उस तरह दोनों हाथ फैलाकर खड़े होना, ये स्थानके प्रकार हैं। उत्तम पर्यकासनसे बैठना, कटिप्रदेशको सीधा रखकर बैठना, गोदूहिका ( गो दूहते समय जैसा आसन होता है वैसा आसन ), उत्कुटिकासन ( दोनों पैरोंको मिलाकर भूमिको स्पर्श न करते हुए बैठना ), मकरमुखासन (मगरके मुखकी तरह पैरोंको करके बैठना), हस्तिहस्तासन (हाथीकी सूंड़के फैलावकी तरह एक पैरको फैलाकर बैठना, किन्हींके मतसे हाथको फैलाकर बैठना), गवासन, अर्धपर्यकासन, वीरासन, ( दोनों जंघाओंको दूर रखकर बैठना), दण्डासन ये सब आसनके प्रकार हैं। ऊवंशय्या, लगडशय्या (शरीरको संकुचित करके सोना), उत्तान शयन, अवाक्शयन (नीचा मुख करके सोना), शवशय्या (मुर्द की तरह सोना), एक करवटसे सोना, बाहर खुले स्थानमें सोना, ये शयनके प्रकार हैं। थूकना नहीं, खुजाना नहीं, तृण, लकड़ी, पत्थर और भूमिपर सोना, केशलोंच, रात्रिमें सोना ही नहीं, स्नान न करना, दन्तघर्षण न करना ये सब अवग्रहके प्रकार हैं । आतापन योग अर्थात् गर्मी में पर्वतके शिखरपर सूर्य के सामने खड़े होकर ध्यान करना, इसी तरह वर्षाऋतुमें वृक्ष के नीचे, शीतकालमें चौराहेपर ध्यान लगाना ये योगके प्रकार हैं। इनके करनेसे साधुको कष्टसहनका अभ्यास रहता है। उस अभ्यासके कारण यदि कभी कष्ट आ पड़ता है तो साधु ध्यानसे विचलित नहीं होता। यदि कष्टसहनका अभ्यास न हो तो ऐसे समय में साधु विचलित हो जाता है। इसीलिए कहा है-'सुखपूर्वक भावित ज्ञान दुःख आनेपर नष्ट हो जाता है। इसलिए मुनिको शक्तिके अनुसार कष्टपूर्वक आत्माकी भावना-आराधना करना चाहिए' ॥३२॥
इस प्रकार छह प्रकारके बहिरंग तपका व्याख्यान करके अब छह ही प्रकारके अन्तरंग तपका कथन करते हैं
१. स्वावसे भ, कु. च. ।
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