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सप्तम अध्याय
५०९
अथ कायक्लेशं तपो लक्षयित्वा तत्प्रतिनियुङ्क्तेऊर्कािद्ययनैः शवादिशयनैर्वीरासनाद्यासनैः
स्थानैरेकपदाग्रगामिभिरनिष्ठोवानिमावग्रहैः। योगैश्चातपनादिभिः प्रशमिना संतापनं यत्तनोः ।
कायक्लेशमिदं तपोऽयुपनतौ सद्ध्यानसिद्धयै भजेत् ॥३२॥ ऊर्ध्वार्काद्ययनैः-शिरोगतादित्यादि-ग्रामान्तरगमनप्रत्यागमनैः । शवादिशयनैः-मृतकदण्डलगडैक- ६ पाश्र्वा दिशय्याभिः। वीरासनाद्यासनैः-बीरासनमकरमुखासनोत्कुटिकासनादिभिः। स्थानैः-कायोत्सर्गः । एकपदाग्रगामिभिः-एकपदमग्रगामि पुरस्सरं येषां समपादप्रसारितभुजादीनां तानि तैः। अनिष्ठीवाग्रिमावग्रहैः-अनिष्ठीवो निष्ठीवनाकरणमग्रिमो मुख्यो येषामकण्डूयनादीनां तेऽनिष्ठीवाग्रिमास्ते च तेऽवग्रहाश्च धर्मोपकारहेतवोऽभिप्रायास्तैः । आतापनादिभिः-आतपनमातापनं ग्रीष्मे गिरिशिखरेऽभिसूर्यमवस्थानम् । एवं वर्षासु रुक्षमूलेषु शीतकाले चतुष्पथे संतापनम् । कायक्लेशं-कायक्लेशाख्यम् । उक्तं च
'ठाणसयणासणेहिं य विविहेहिं य उग्गहेहिं बहुगेहिं ।
अणुवीचीपरिताओ कायकिलेसो हवदि एसो ॥' [ मूलाचार, गा. ३५६ ] अपि च
'अनुसूर्य प्रतिसूर्य तिर्यक्सूर्य तथो सूर्यं च । उद्भ्रमकेनापि गतं प्रत्यागमनं पुनर्गत्वा ।। साधारं सविचारं ससन्निरोधं तथा विसृष्टाङ्गम् ।
समपादमेकपादं गृध्रस्थित्यायतेः स्थानम् ।। हैं-ऐसे एकान्त स्थानमें रहनेसे साधुको कलह, हल्ला-गुल्ला, संक्लेश, व्यामोह, असंयमी जनोंके साथ मिलना-जुलना, ममत्वका सामना नहीं करना पड़ता और न ध्यान और स्वाध्यायमें बाधा आती है ॥३१॥
आगे कायक्लेशका लक्षण कहकर उसके करने की प्रेरणा करते हैं
सूर्यके सिरपर या मुँहके सामने आदि रहते हुए अन्य ग्रामको जाना और वहाँसे लौटना, मृतकके समान या दण्डके समान आदि रूपमें शयन करना, वीरासन आदि आसन लगाना, एक पैर आगे करके या दोनों पैरोंको बराबर करके खड़े रहना, न थूकना, न खुजाना आदि; धर्मोपकारक अवग्रह पालना, आतापन आदि योग करना इत्यादिके द्वारा तपस्वी साधु जो शरीरको कष्ट देता है उसे कायक्लेश तप कहते हैं। यह कायक्लेश दुःख आ पड़नेपर समीचीन ध्यानकी सिद्धिके लिए करना चाहिए ॥३२॥
विशेषार्थ-अयन, शयन, आसन, स्थान, अवग्रह और योगके द्वारा शरीरको कष्ट देनेका नाम कायक्लेश तप है। इनके प्रभेदोंका स्वरूप इस प्रकार कहा है-सूर्यकी ओर पीठ करके गमन करना, सूर्यको सम्मुख करके गमन करना, सूर्यको बायीं ओर या दाहिनी ओर करके गमन करना, सूर्यके सिरके ऊपर होते हुए गमन करना, सूर्यको पार्श्वमें करके गमन करना, भिक्षाके लिए एक गाँवसे दूसरे गाँव जाना और फिर लौटना, ये सब अयन अर्थात् गमनके प्रकार हैं जिनसे कायको कष्ट दिया जा सकता है। स्तम्भ
आदिका सहारा लेकर खड़े होना, एक देशसे दूसरे देशमें जाकर खड़े होना, निश्चल खड़े होना, कायोत्सर्ग सहित खड़े होना, दोनों पैर बराबर रखकर खड़े होना, एक पैरसे १. साधारं स-भ. कु. च. ।
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