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धर्मामृत ( अनगार )
त्यागः क्षीरदधीक्षुतैलहविषां षण्णां रसानां च यः कार्त्स्न्येनावयवेन वा यदसनं सूपस्य शाकस्य च । आचाम्लं विकटौदनं यददनं शुद्धौदनं सिक्यवद् रूक्षं शीतलमप्यसौ रसपरित्यागस्तपोऽनेकधा ॥२७॥
अथ रसपरित्यागलक्षणार्थमाह
इक्षुः - गुडखण्ड मत्स्यण्डिकादिः । हविः - घृतम् । अवयवेन - एकद्वित्र्याद्यवच्छेदेन । असनंवर्जनम् । आचाम्लं - असंस्कृतसौवीर मिश्रम् । विकटौदनं - अतिपक्वमुष्णोदकमिश्रं वा । शुद्धोदनं -- केवलभक्तम् । सिक्थवत् — सिक्थाढ्य मल्लोदकमित्यर्थः । अपि - श्रेष्ठानामिष्टरूपरसगन्धस्पर्शोपेतानां परमान्न९ पानफलभक्षौषधादीनां रूपबलवीर्यगृद्धिदर्पवर्धनानां
स्वादुनामाहाराणां
महारम्भप्रवृत्तिहेतूनामनाहरण
संग्रहणार्थः ॥२७॥
अथ यः संविग्नः सर्वज्ञाज्ञा दृढबद्धादरस्तपःसमाधि कामश्च सल्लेखनोपक्रमात् पूर्वमेव नवनीतादिलक्षणां१२ चतस्रो महाविकृतीर्यावज्जीवं त्यक्तवान् स एव रसपरित्यागं वपुः सल्लेखनाकामो विशेषेणाभ्यसितुमर्हतीत्युपदेशार्थं वृत्तद्वयमाह -
रसपरित्याग तपका लक्षण कहते हैं
दूध, दही, इक्षु - गुड़, खाँड़, शर्करा आदि, तेल और घी इन छह रसोंका जो पूर्णरूपसे या इनमें से एक-दो आदिका त्याग है उसे रसपरित्याग कहते हैं । मूँग आदिका और शाकका सर्वथा त्यागना या किसी दाल, शाक आदिके त्यागने को भी रसपरित्याग कहते हैं । आचाम्लका, अति पके हुए . और गरम जल मिले भातका, या केवल भातका, या अल्प जलवाले भातका, या रूक्ष आहारका, या शीतल आहारका खाना भी रसपरित्याग है । इलोकके 'अपि' शब्द से श्रेष्ठ, इष्ट रूप, रस, गन्ध और स्पर्शसे युक्त उत्तम अन्न, पान, फल, औषध आदि तथा रूप, बल, वीर्य, तृष्णा और भदको बढ़ानेवाला तथा महान् आरम्भ और प्रवृत्तिके कारणभूत स्वादिष्ट आहारको ग्रहण नहीं करना चाहिए । इस तरह रसपरित्याग अनेक प्रकारका होता है ||२७||
विशेषार्थ - भगवती आराधना (गा. २१५-२१७ ) में रसपरित्यागमें उक्त प्रकार से त्याग बतलाया है । तत्त्वार्थवार्तिक आदि सभी प्राचीन ग्रन्थोंमें रसपरित्यागमें घी, दूध, दही, गुड़-शक्कर और तेलके त्यागका मुख्य रूप से निर्देश मिलता है क्योंकि इनकी गणना इन्द्रियमदकारक वृष्य पदार्थों में है । उमास्वातिके तत्त्वार्थाधिगम भाष्य ( १९-१९ ) में रसपरित्यागके अनेक भेद कहे हैं- जैसे मद्य, मांस, मधु और मक्खन इन विकारकारी रसोंका त्याग और विरस रूक्ष आदि आहारका ग्रहण । टीकाकार सिद्धसेन गणिने आदि पदसे दूध, दही, गुड़, घी और तेलका ग्रहण किया है। इससे प्रतीत होता है कि दोनों परम्पराओंमें 'रस' से इन पाँचोंका मुख्य रूपसे ग्रहण होता था । क्योंकि ये वृष्य हैं, इन्द्रियों को उद्दीप्त करते हैं । पं. आशाधरजीने इनके साथ ही खट्टा मीठा, तीता, कटुक, कसैला और लवण इन छह रसोंमें से एक, दो या सबके त्यागको भी रसपरित्यागमें स्पष्ट कर दिया है । मिष्टरसके त्यागमें और इक्षुरसके त्यागसें अन्तर है । मिष्टरसका त्यागी मीठे फलोंका सेवन नहीं कर सकता किन्तु इक्षुरसका त्यागी कर सकता है ||२७||
जो संसारले उद्विग्न है, सर्वज्ञके वचनों में दृढ़ आस्था रखती है, तप और समाधिका इच्छुक है, सल्लेखना प्रारम्भ करनेसे पहले ही मक्खन आदि चार महाविकृतियोंको जीवन
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