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________________ षष्ठ अध्याय अथ प्रकृतमुपसंहरन् बाह्याभ्यन्तरतपश्चरणाय शिवपुरपान्थमुद्य मयितुमाह - इति भवपथोन्मास्थामप्रथिम्नि पृथूद्यमः, शिवपुरपथे पौरस्त्यानुप्रयाणचणश्चरन् । मुनिशनाद्यस्त्ररुः क्षितेन्द्रियतस्कर प्रसृतिरमृतं विन्वत्वन्तस्तपः शिबिकां श्रितः ॥ ११२ ॥ ६ भवेत्यादि - मिथ्यात्वादित्रयोच्छेदार्थशक्तिविस्तारे । पौरस्त्यानुप्रयाणचणः - पूर्वाचार्यानुगमनप्रतीतः । अमृतः - मोक्षममृतपानसाहचर्यात् स्वर्गं वा । इति भद्रम् । इत्याशाधरदृब्धायां धर्मामृतपञ्जिकायां ज्ञानदीपिकापर संज्ञायां षष्ठोऽध्यायः । अत्राध्याये ग्रन्थप्रमाणं सप्तत्यधिकानि चत्वारि शतानि । अङ्कतः ४७० ॥ मग्न थे । बड़े जोरकी आँधी आयी । उससे पास में लगा तृणपूलोंका बड़ा भारी ढेर मुनिपर आ पड़ा। शिवभूति आत्मध्यानसे च्युत नहीं हुए और मुक्त हुए। पाण्डव जब ध्यानमें मग्न थे तो उनके वैरी कौरवपक्ष के मनुष्योंने लोहेकी साँकलें तपाकर आभूषणोंकी तरह पहना दीं । पाण्डव भी मुक्त हुए । सुकुमाल स्वामीको गीदड़ोंने कई दिनों तक खाया किन्तु वे ध्यानसे विचलित नहीं हुए । विद्युच्चर चोर था । जम्बूस्वामीके त्यागसे प्रभावित होकर अपने पाँच सौ साथियों के साथ मुनि हो गया था। जब वे सब मथुराके बाहर एक उद्यानमें ध्यानमग्न थे तो देवोंने महान् उपसर्ग किया। सबका प्राणान्त हो गया किन्तु कोई ध्यान से विचलित नहीं हुआ । इसी प्रकारके उपसर्गसहिष्णु अन्य भी हुए हैं। जैसे अचेतनकृत उपसर्ग सहनेवाले एणिका पुत्र वगैरह, मनुष्यकृत उपसर्ग सहनेवाले गुरुदत्त, गजकुमार वगैरह, तियंचकृत उपसर्ग सहनेवाले सिद्धार्थ, सुकोशल वगैरह, और देवकृत उपसर्ग सहनेवाले श्रीदत्त, सुवर्णभद्र वगैरह । इनकी कथाएँ आगमसे जाननी चाहिए | १११॥ ४९१ परीह और उपसर्गसहनका उपसंहार करते हुए मुमुक्षुको बाह्य और आभ्यन्तर तपको पालने के लिए उत्साहित करते हैं Jain Education International इस प्रकार मोक्षनगरके मार्ग में विहार करते हुए पूर्व आचार्योंका अनुगमन करने से अनुभवी और संसारके मार्ग मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रको नष्ट करने के लिए शक्तिके विस्तार में महान उत्साही मुनि, अनशन अवमौदर्य आदि तीक्ष्ण शस्त्रोंके द्वारा इन्द्रियरूपी चोरोंके प्रसारको रोककर और अभ्यन्तर तपरूपी पालकीपर चढ़कर अमृतको — मोक्ष या स्वर्गको प्राप्त करे ॥ ११२ ॥ इस प्रकार पं. आशाधर विरचित अनगार धर्मामृतकी भव्यकुमुदचन्द्रिका टीका तथा ज्ञानदीपिका पंजिकाकी अनुसारिणी भाषा टीकामें मार्गमहोद्योग वर्णन नामक षष्ठ अध्याय समाप्त हुआ । For Private & Personal Use Only ३ www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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