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धर्मामृत ( अनगार) अथैवं द्वाविंशतिक्षुदादिपरीषहजयं प्रकाश्य तदनुषङ्गप्राप्तमुपसर्गसहनमुदाहरणपुरस्सरं व्याहरन्नाहस्वध्यानाच्छिवपाण्डुपुत्रसुकुमालस्वामिविद्युच्चर
प्रष्टाः सोढविचिन्नतिर्यगमरोत्थानोपसर्गाः क्रमात् । संसारं पुरुषोत्तमाः समहरंस्तत्तत्पदं प्रेप्सवो
लीनाः स्वात्मनि येन तेन जनितं धुन्वन्त्वजन्यं बुधाः ॥११॥ शिवः-शिवभूति म मुनिः । पृष्ठाः । पृष्टग्रहणात् चेतनकृतोपसर्गा एणिकापुत्रादयः, मनुष्यकृतोपसर्गा गुरुदत्तगजकुमारादयः, तिर्यक्कृतोपसर्गाः सिद्धार्थसुकौशलादयः । देवकृतोपसर्गाः श्रीदत्तसुवर्णभद्रादयो यथागममधिगन्तव्याः । उत्थानं-कारणम् । समहरन्--संहरन्ति स्म ॥१११॥ असमर्थ होता है। जैसे मन्त्र या औषधिके बलसे जिस विषकी मारण शक्ति नष्ट हो जाती है उसे खानेपर भी मरण नहीं होता। अथवा जैसे जिस वृक्षकी जड़ काट दी जाती है वह फूलता-फलता नहीं है। या जैसे, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्म साम्परायमें मैथुन और परिग्रह संज्ञा कार्यकारी नहीं हैं या जैसे केवलीमें एकाग्रचिन्तानिरोधके अभाव में भी कर्मोंकी निर्जरा होनेसे उपचारसे ध्यान माना जाता है, वैसे ही भूख, रोग, वध आदि वेदनाका सद्भावरूप परीषहके अभाव में वेदनीयकर्मके उदयमें आगत द्रव्यको सहनेरूप परीषहका सद्भाव होनेसे जिनभगवान्में ग्यारह परीषह उपचारसे मानी गयी हैं। किन्तु घाति कर्मोंके बलकी सहायतासे रहित वेदनीय कर्म फलदाता नहीं होता। इसलिए जिनभगवान्में ग्यारह परीषह नहीं हैं । ऐसा होनेसे किसी अपेक्षा केवलीके परीषह होती हैं और किसी अपेक्षा नहीं होती इस तरह स्याद्वाद घटित होता है। शतकके प्रदेशबन्धमें वेदनीयके भागविशेषके. कारणका कथन है। अतः वेदनीय घातिकर्मोंके उदयके बिना फलदायक नहीं होता, सिद्ध हुआ। मार्गणाओंमें नरकगति और तियंचगतिमें सब परीषह होती हैं। मनुष्यगतिमें गणस्थानोंकी तरह जानना। देवगतिमें घातिकर्मोंके उदयसे होनेवाली परीषहोंके साथ वेदनीयसे उत्पन्न क्षुधा, प्यास और वध परीषहके साथ चौदह परीषह होती हैं। इन्द्रियमार्गणा और कायमागणामें सब परीषह होती हैं। योगमार्गणामें वैक्रियिक, वैक्रियिक मिश्रमें देवगतिके समान जानना। तिर्यंच और मनुष्योंकी अपेक्षा बाईस तथा शेष योगों और वेदादि मार्गणाओंमें अपने-अपने गुणस्थानोंके अनुसार जानना ॥११०॥
इस प्रकार बाईस परीषहोंको जीतनेका कथन करके उनके सम्बन्धसे उदाहरणपूर्वक उपसर्ग सहनेका कथन करते हैं
__ आत्मस्वरूपका ध्यान करनेसे शिवभूति मुनि, पाण्डव, सुकुमाल स्वामी और विद्युञ्चर प्रमुख पुरुषश्रेष्ठोंने क्रमशः अचेतनकृत, मनुष्यकृत, तिथंचकृत और देवकृत उपसर्गोंका सहन करके संसारका नाश किया। इसलिए उस पदको प्राप्त करने के इच्छुक विद्वान् स्वात्मामें लीन होकर अचेतन आदिमें-से किसीके भी द्वारा होनेवाले उपसर्गको सहन करें ॥१११॥
_ विशेषार्थ-किसी भी बाह्य निमित्तसे अचानक आ जानेवाली विपत्तिको उपसर्ग कहते हैं। वह चार प्रकारका होता है-अचेतनकृत, मनुष्यकृत, तिथंचकृत और देवकृत । इन उपसर्गोको सहन करनेवालोंमें प्रमुख हुए हैं शिवभूति आदि । शिवभूति मुनिध्यानमें १. 'जम्हा वेदणीयस्स सुखदुःखोदयं सणाणावरणादि उदयादि उपकारकारणं तम्हा वेदणीयं सेव पागडो
सुहदुक्खोदयं दिस्सदे।' इति
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