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________________ षष्ठ अध्याय अथ लोकालोकस्वरूपं निरूप्य तद्भावनापरस्य स्वात्मोपलब्धियोग्यतामुपदिशतिजीवाद्यर्थचितो दिवर्धमुरजाकारस्त्रिवातोवृतः, स्कन्धः खेऽतिमहाननादिनिधनो लोकः सदास्ते स्वयम् । नन् मध्येऽत्र सुरान् यथायथमधः श्वाभ्रांस्तिरश्चोऽभितः, * कर्मोचिरुपप्लुतानधियतः सिद्धयं मनो धावति ॥७६॥ जीवाद्यर्थचितः-जीवपुद्गलधर्माधर्मकालैाप्तः । दिवर्धमुरजाकारः-अधोन्यस्तमृदङ्गोर्ख ६ मुखस्थापितोर्वमृदङ्गसमसंस्थानः । इत्थं वा वेत्रासनमृदङ्गोरुझल्लरीसदृशाकृतिः। अधश्चोद्ध्वं च तिर्यक् च यथायोगमिति त्रिधा । त्रिवातोवृतः-त्रयाणां वातानां घनोदधि-धनवात-तनुवातसंज्ञानां मरुतां समाहारस्त्रिवाती । तया वृतो वृक्ष इव त्वक्त्रयेण वेष्ठितः । स्कन्धः-समुदायरूपः । उक्तं च 'समवाओ पंचण्हं समओ त्ति जिणुत्तमेहि पण्णत्तं । सो चेव हवदि लोओ तत्तो अमिदो अलोगो खं ॥' [ पञ्चास्ति. गा. ३ ] खे-अलोकाकाशे न वराहदंष्ट्रादौ । अनादिनिधनः-सृष्टिसंहाररहितः । उक्तं च 'लोओ अकिट्टिमो खलु अणाइणिहणो सहावणिव्वत्तो। जीवाजीवेहिं फुडो सव्वागासवयवो णिच्चो ।' [ त्रिलो. सा. गा. ४ ] __ इस तरह व्यवहारसे बाह्य होकर आत्मनिष्ठ होनेसे ही परमनिर्जरा होती है । परीषहोंको जीतनेपर ही यह कुशलमूला निर्जरा होती है । यह निर्जरा शुभानुबन्धा भी होती है और निरनुबन्धा भी होती है अर्थात् इसके साथ यदि बन्ध होता है तो शुभका बन्ध होता है या बन्ध बिलकुल ही नहीं होता। इस तरह निर्जराके गण-दोषोंकी भावना करना निरा है । इसकी भावनासे चित्त निर्जराके लिए तत्पर होता है ।।७५।। ___ अब लोक और अलोकका स्वरूप बतलाकर लोकभावना भानेवालेके स्वात्माकी उपलब्धिकी योग्यता आती है, ऐसा उपदेश करते हैं ___ यह लोक जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्योंसे व्याप्त है। आधे मृदंगको नीचे रखकर उसके मुखपर पुरा मृदंग खड़ा करके रखनेसे जैसा आकार बनता है वैसा ही उसका आकार है। घनोदधि, घनवात और तनवात नामक तीन वातवलयोंसे वेष्ठित है। द्रव्योंका समुदाय रूप है, अत्यन्त महान है, अनादिनिधन है तथा स्वयं अलोकाकाशके मध्यमें सदासे स्थित है। इसके मध्यमें मनुष्य, यथायोग्य स्थानोंमें देव, नीचे नारकी और सर्वत्र तिर्यंच निवास करते हैं । कर्मरूपी अग्निमें सदा जलनेवाले इन जीवोंका ध्यान करनेसे साधुका मन सिद्धिके लिए दौड़ता है ।।७६।। विशेषार्थ-अनन्त आकाशके मध्यमें लोक स्थित है। जिसमें जीवादि पदार्थ देखे जायें उसे लोक कहते हैं। वैसे आकाश द्रव्य सर्वव्यापी एक अखण्ड द्रव्य है। किन्तु उसके दो विभाग हो गये हैं। जितने आकाशमें जीव आदि पाँचों द्रव्य पाये जाते हैं उसे लोक कहते हैं और लोकके बाहरके अनन्त आकाशको अलोक कहते हैं। कहा है-जिनेन्द्रदेवने जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाशके समवायको समय कहा है। वही लोक है। उससे - १. ङ्गार्ध-भ. कु. च. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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