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________________ षष्ठ अध्याय ४६७ मिथ्यात्वप्रमुखद्विषद्बलमवस्कन्दाय दृप्यबलं, रोद्धं शुद्धसुदर्शनादिसुभटान् युञ्जन् यथास्वं सुधीः । दुष्कर्मप्रकृतीन दुर्गतिपरीवर्तेकपाकाः परं, निःशेषाः प्रतिहन्ति हन्त कुरुते स्वं भोक्तुमुत्काः श्रियः ॥७३॥ अवस्कन्दाय-लक्षणया शुद्धात्मस्वरूपोपघाताय अतर्कितोपस्थितप्रपाताय च । दुष्कर्मप्रकृती:असāद्यादीन् दुराचारानीत्यादीश्च । दुर्गतिः-नरकादिगति निर्द(निर्ध)नत्वं च ॥७३।। -अथ निर्जरानुप्रेक्षितुं तदनुग्रहं प्रकाशयन्नाह यः स्वस्याविश्य देशान् गुणविगुणतया भ्रश्यतः कर्मशत्रून्, __कालेनोपेक्षमाणः क्षयमवयवशःप्रापयंस्तप्तुकामान् । धोरस्तैस्तैरुपायैः प्रसभमनुषजत्यात्मसंपद्यजत्रं, तं वाहीकश्रियोऽङ्कश्रितमपि रमयत्यान्तरश्रीः कटाक्षः ॥७४॥ . स्वस्य-स्वात्मनो नायकात्मनश्च । देशान्-चिदंशान् विषयांश्च । गुणाः-सम्यक्त्वादयः सन्धि- १२ विग्रहादयश्च । तेषां विगुणता पार्कयां (?) प्रतिलोम्यं मिथ्यात्वादित्रयमुत्तरेषां च प्रयोगवैपरीत्यम् । अवयवश:-अंशेन अंशेन । तप्तुकामान्-स्वफलदानोन्मुखान् उपद्रोतुमिच्छूश्च । धीरः-योगीश्वर उदात्तनायकश्च । तैस्तै:-अनशनादितपोभिर्धाटकादिभिश्च । आत्मसंपदि-आत्मसंवित्ती विजिगीषुगुणसामग्या १५ शुद्ध आत्मस्वरूपका घात करनेके लिए मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगरूपी शत्रुओंकी सेनाका हौसला बहुत बढ़ा हुआ है। उनको रोकनेके लिए जो विचारशील मुमुक्षु निरतिचार सम्यग्दर्शन आदि योद्धाओंको यथायोग्य नियुक्त करता है अर्थात् मिथ्यादर्शनको रोकनेके लिए सम्यग्दर्शनको, मिथ्याज्ञानको रोकनेके लिए सम्यरज्ञानको, अविरतिको रोकनेके लिए व्रतोंको, प्रमादको रोकनेके लिए उत्साहको, क्रोधके लिए क्षमाको, मानके लिए मार्दवको, मायाके लिए आर्जवको, लोभके लिए शौचको, राग-द्वेषके लिए समताको, मनोयोगके लिए मनोनिग्रहको, वचनयोगके लिए वचननिग्रहको, और काययोगके लिए कायनिग्रहको नियुक्त करता है, वह नारक, तिथंच, कुमानुष और कुदेव पर्यायोंमें भ्रमण करानेवाली समस्त असाता वेदनीय आदि पापकर्म प्रकृतियोंके बन्धको ही नहीं रोकता, किन्तु प्रसन्नताके साथ कहना पड़ता है कि देवेन्द्र-नरेन्द्र आदिकी विभूतियोंको अपने भोगके लिए उत्कण्ठित करता है । अर्थात् न चाहते हुए भी उस भाग्यशालीके पास इन्द्र आदिकी सम्पदा स्वयं आती हैं ॥७३॥ इस प्रकार संवर अनुप्रेक्षाका कथन समाप्त होता है। अब निर्जराका विचार करनेके लिए उसके अनुग्रहको प्रकट करते हैं जो कर्मरूपी शत्रु सम्यक्त्व आदि गुणोंके मिथ्यात्व आदि परिणामरूप होनेसे आत्माके कर्मोंसे मलिन हुए अंशोंमें विशिष्ट शक्तिरूप परिणामसे स्थित होकर समयसे स्वयं पककर छूट जाते हैं उनकी जो उपेक्षा करता है, और जो कर्मशत्रु अपना फल देनेके उन्मुख हैं उनका अनशन आदि उपायोंके द्वारा बलपूर्वक अंश-अंश करके क्षय करता है, तथा परीषह उपसर्ग आदिसे न घबराकर निरन्तर आत्मसंवेदनमें लीन रहता है, तपके अतिशयकी ऋद्धिरूप बाह्य लक्ष्मीकी गोदमें बैठे हुए भी उस धीर मुमुक्षुको अनन्तज्ञानादिरूप अभ्यन्तर लक्ष्मी कटाक्षोंके द्वारा रमण कराती है ।।७४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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