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षष्ठ अध्याय
४६३ कोऽपि प्रकृत्यशुचिनीह शुचेः प्रकृत्या,
भूयान्वसेरकपदे तव पक्षपातः । यद्विश्रसा रुचिरमर्पितपितं द्राग,
व्यत्यस्यतोऽपि महुरुद्विजसेऽङ्ग नाङ्गात् ॥६८॥ वसेरकपदे-पथिकनिशावासस्थाने । तेन च साधर्म्यमङ्गस्य परद्रव्यत्वादल्पकालाधिवास्यत्वाच्च । विरसा रुचिरं-निसर्गरम्यं श्रीचन्दनानुलेपनादि । द्राग व्यत्यस्यत:-सद्यो विपर्यासं नयतः । ॥६८॥
यूथ देहस्य त्वगावरणमात्रेणव गृध्राद्यनुपघातं प्रदर्श्य तस्यैव शुद्धस्वरूपदर्शननिष्ठात्माधिष्ठानतामात्रेण पवित्रताकरणात् सर्वजगद्विशुद्धयङ्गतासम्पादनायात्मानमुत्साहयति
निर्मायास्थगयिष्यदङ्गमनया वेधा न भोश्चेत् त्वचा,
तत् क्रव्यादभिरखण्डयिष्यत खरं दायादवत् खण्डशः । तत्संशुद्धनिजात्मदर्शनविधावग्रसरत्वं नयन,
स्वस्थित्येकपवित्रमेतदखिलत्रैलोक्यतीथं कुरु ॥६९॥ अस्थगयिष्यत्-आच्छादयिष्यत् । अनया-बाह्यया । क्रव्याद्भिः-मांसभक्षद्धादिभिः । दायादवत्-दायादैरिव, सक्रोधमिथःस्प‘संरब्धत्वात् ।।६९॥
हे आत्मन् ! यह शरीर स्वभावसे ही अपवित्र है और पथिक जनोंके रात-भर ठहरनेके लिए बने स्थानके समान पराया तथा थोड़े समयके लिए है। किन्तु तुम स्वभावसे ही पवित्र हो, फिर भी तुम्हारा शरीरके प्रति कोई महान् अलौकिक पक्षपात है; क्योंकि शरीरपर बार-बार लगाये गये स्वभावसे सुन्दर चन्दन आदिको यह शरीर तत्काल गन्दा कर देता है फिर भी तुम इससे विरक्त नहीं होते ॥६॥
विशेषार्थ-शरीर स्वभावसे ही अपवित्र है क्योंकि यह रज और वीर्यसे बना है तथा रस, रुधिर आदि सप्त धातुमय है एवं मल-मूत्रका उत्पत्ति स्थान है । इसपर सुन्दरसे सुन्दर द्रव्य लगाये जानेपर भी यह उस द्रव्यको ही मलिन कर देता है। फिर भी यह आत्मा उसके मोहमें पड़ा हुआ है। कहा है-'इस शरीरपर जो भी सुन्दर वस्तु लगायी जाती है वही अपवित्र हो जाती है। हे जीव ! इसकी छायासे ठगाये जाकर मलद्वारोंसे युक्त इस क्षणभंगुर शरीरका तू क्यों लालन करता है ? ॥६८॥
___ यह शरीर चामसे आच्छादित होनेसे ही गृद्ध आदिसे बचा हुआ है। फिर भी वह शरीर शुद्ध स्वरूपको देखनेवाले आत्माका निवासस्थान होनेसे पवित्रताका कारण है। अतः ग्रन्थकार समस्त जगतकी विशद्धिके लिए आत्माको उत्साहित करते हैं
हे आत्मन् ! यदि विधाताने शरीरको बनाकर इस त्वचासे न ढक दिया होता तो मांसभक्षी गृद्ध आदिके द्वारा यह उसी तरह टुकड़े-टुकड़े कर दिया गया होता, जैसे पिता वगैरहकी जायदादके भागीदार भाई वगैरह उस वस्तुको टुकड़े-टुकड़े कर डालते हैं जिसका बँटवारा १. 'आधीयते यदिह वस्तु गुणाय यान्तं
काये तदेव मुहुरेत्यपवित्रभावम् । छायाप्रतारितमतिर्मलरन्ध्रबन्धं किं जीव लालयसि भङ्गुरमेतदङ्गम् ॥ [
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