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________________ ४६२ धर्मामृत ( अनगार) मुदमुपैमि । उक्तं च 'आत्मानुष्ठाननिष्ठस्य व्यवहारबहिस्थितेः । जायते परमानन्दः कश्चिद्योगेन योगिनः ।।' [ इष्टोपदेश, श्लो. ४७ ] अन्वेमि नो-नानुवर्तेऽहम् । उक्तं च 'तथैव भावयेदेहाद् व्यावात्मानमात्मनि। यथा न पुनरात्मानं देहे स्वप्नेऽपि योजयेत् ॥ [ समाधित., श्लो. ८२ ] ॥६७।। अथ देहस्याशुचित्वं भावयन्नात्मनस्तत्पक्षपातमपवदति और भी कहा है-'अज्ञानी मनुष्यके शरीरमें स्थित आत्माको मनुष्य जानता है, तिर्यंचके शरीर में स्थित आत्माको तिर्यंच जानता है, देवके शरीर में स्थित आत्माको नारकी जानता है किन्तु परमार्थसे ऐसा नहीं है । आत्मा तो अनन्त ज्ञान और अनन्तवीर्यसे युक्त है, स्वसंवेदनसे जाना जाता है और उसकी स्थिति अचल है।' अतः आत्मा शरीरसे भिन्न है, शरीरके बिना ही उसका अनुभव होता है । कहाँ है 'शरीरका प्रतिभास न होने पर भी यह ज्ञानरूप चेतना स्वतन्त्रतापूर्वक प्रकाशमान होती है । यह स्वयं ही देखी जाती है।' इसका अनुभवन करनेसे परमानन्दकी अनुभूति होती है । कहा है-'जो योगी आत्माके अनुष्ठानमें तत्पर है और व्यवहारसे बहिर्भूत है उसे योगके द्वारा अनिर्वचनीय परमानन्दकी प्राप्ति होती है।' इस तरह शरीर और आत्माको भिन्न अनुभव करनेसे पुनः आत्मा शरीरसे बद्ध नहीं होता है । कहा भी है-शरीरसे भिन्न करके आत्माको आत्मामें उसी प्रकार भाना चाहिए जिससे आत्माको स्वप्नमें भी पुनः शरीरसे संयुक्त न होना पड़े। एकत्व अनुप्रेक्षासे अन्यत्व अनुप्रेक्षामें अन्तर यह है कि एकत्व अनुप्रेक्षामें 'मैं अकेला हूँ' इस प्रकार विधिरूपसे चिन्तन किया जाता है । और अन्यत्व अनुप्रेक्षामें 'शरीर आदि मुझसे भिन्न हैं, मेरे नहीं हैं। इस प्रकार निषेध रूपसे चिन्तन किया जाता है। ऐसा चिन्तन करनेसे शरीर आदिमें निरीह होकर सदा कल्याणमें ही तत्पर रहता है ॥६७॥ इस प्रकार अन्यत्व अनुप्रेक्षाका कथन समाप्त होता है । आगे शरीरकी अपवित्रताका विचार करते हुए आत्माका शरीरके प्रति जो पक्षपात है उसकी निन्दा करते हैं १. 'नरदेहस्थमात्मानमविद्वान् मन्यते नरम् । तिर्यञ्चं तिर्यगङ्गस्थं सुराङ्गस्थं सुरं तथा ॥ नारकं नारकाङ्गस्थं न स्वयं तत्त्वतस्तथा । अनन्तानन्तधीशक्तिः स्वसंवेद्योऽचलस्थितिः ॥-समाधित., ८-९ श्लो.। २. 'वपुषोऽप्रतिभासेऽपि स्वातन्त्र्येण चकासति । चेतना ज्ञानरूपेयं स्वयं दृश्यत एव हि ॥ [ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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