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________________ षष्ठ अध्याय ४५९ प्राच्यः-पूर्वभवसंबन्धी। कश्चित्-पुत्रादिः । इह-अस्मिन् भवे । साध्येत-व्यवस्थाप्येत । सध्यङ-सहगामी । इहत्य:-इह भवसंभवसंबन्धी। दरभिमति-ममायमिति मिथ्याभिनिवेशम । सध्रीचः-सहायान् । अनुभवसि-काक्वा नानुभवसीत्यर्थः । त्वा-त्वाम् । तत्फलं-सुखदुःखरूपम् ॥६४॥ ३ अथात्मनस्तत्त्वतो न कश्चिदन्वयी स्यादित्यनुशास्ति यदि सुकृतममाहङ्कार-संस्कारमङ्गं पदमपि न सहैति प्रेत्य तत् कि परेऽर्थाः । व्यवहृतितिमिरेणैवापितो वा चकास्ति, स्वयमपि मम भेदस्तत्त्वतोऽस्म्येक एव ॥६५॥ सुकृतः-जन्मप्रभृतिनिर्मितः । ममाहंकारो-ममेदमिति ममकारो अहमिदमिति अहंकारश्च । ९ संस्कारः-दृढतमप्रतिपत्तिः । परे-पृथग्भूताः पृथक् प्रतीयमानाश्च । तिमिरं-नयनरोगः । चकास्तिआत्मानं दर्शयति । स्वयं-आत्मना आत्मनि वा। भेदः-ज्ञानसुखदुःखादिपर्यायनानात्वम् । एकः-पूर्वापरानुस्यूतकचैतन्यरूपत्वात् ॥६५॥ १२ अथान्यत्वभावनायां फलातिशयप्रदर्शनेन प्रलोभयन्नाह स्वयमा दूसरे, मरनेकी बात तो दूर, जीवित अवस्थामें ही तेरे सगे-सम्बन्धी सुखमें ही साथ देते हैं, दुःख पड़नेपर दूर हो जाते हैं। किन्तु तू जो पुण्य या पाप कर्म करता है वह परलोकमें तेरे साथ जाता है और तुझे सुख या दुःख देता है। तथा तू अकेला ही उनका फल भोगता है । पुण्य और पापका फल सुख तथा दुःख भोगनेमें दूसरा कोई साझीदार नहीं होता ॥६४॥ वास्तवमें कोई भी आत्माके साथ जानेवाला नहीं है यह कहते हैं___इस शरीरमें जन्मकालसे ही ममकार और अहंकारका संस्कार बना हुआ है। यदि मरनेपर यह शरीर एक पग भी जीवके या मेरे साथ नहीं जाता, तो मुझसे साक्षात् भिन्न दिखाई देनेवाले स्त्री, स्वर्ण आदि अन्य पदार्थोंकी तो बात ही क्या है ? अथवा व्यवहारनयरूपी नेत्र रोगके द्वारा आरोपित मेरा स्वयं भी भेद आत्माका दर्शन कराता है। निश्चयनयसे तो मैं एक ही हूँ॥६५॥ विशेषार्थ-जीवका सबसे घनिष्ठ सम्बन्ध अपने शरीरसे होता है। शरीर जीवके साथ ही जन्म लेता है और मरण पर्यन्त प्रत्येक दशामें जीवके साथ रहता है । अतः शरीरमें जीवका ममकार और अहंकार बड़ा मजबूत होता है। ममकार और अहंकारका स्वरूप इस प्रकार कहा है--जो सदा ही अनात्मीय हैं, आत्माके नहीं हैं, वथा कर्मके उदयसे उत्पन्न हुए हैं उन अपने शरीर वगैरहमें 'ये मेरे हैं' इस प्रकारके अभिप्रायको ममकार कहते हैं । जैसे मेरा शरीर । और जो भाव कर्मकृत हैं, निश्चयनयसे आत्मासे भिन्न हैं उनमें आत्मत्वके अभिप्रायको अहंकार कहते हैं। जैसे. मैं राजा हूँ। फिर भी जब मरनेपर शरीर ही जीवके साथ नहीं जाता तब जो स्त्री, पुत्र, रुपया आदि साक्षात् भिन्न हैं उनके साथ जानेकी कल्पना ही व्यर्थ है। तथा आत्मामें होनेवाली ज्ञान, सुख-दुःख आदि पर्यायें ही मेरे अस्तित्वको बतलाती हैं। इन पर्यायोंके भेदसे आत्मामें भेदकी प्रतीति औपचारिक है। वास्तवमें तो आत्मा एक अखण्ड तत्त्व है। इस प्रकारका चिन्तन करनेसे इष्ट जनोंमें राग और अनिष्ट जनोंमें द्वेष नहीं होता ॥६५॥ अब अन्यत्व भावनाका विशिष्ट फल बतलाकर उसके प्रति मुमुक्षुओंका लोभ उत्पन्न करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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